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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
तो वे पदार्थ उक्त प्रार्थना सुन कर दुःखादि से मुक्त करा दें, ऐसा कभी नहीं होता । इस संसार में वास्तव में, काम-भोग दुःख से पीड़ित उस व्यक्ति की रक्षा करने या शरण देने में समर्थ नहीं होते । इन काम भोगों का उपभोक्ता किसी समय तो पहले से ही स्वयं इन काम-भोग पदार्थों को छोड़ देता है, अथवा किसी समय पुरुष को काम भोग पहले ही छोड़ देते हैं । इसलिए ये काम - भोग मेरे से भिन्न हैं, मैं इनसे भिन्न हूँ । फिर हम क्यों अपने से भिन्न इन काम-भोगों में मूर्च्छित - आसक्त हों । इस प्रकार इन सबका ऐसा स्वरूप जानकर हम इन कामभोगों का परित्याग कर देगे । बुद्धिमान् साधक जान ले, ये सब कामभोगादिपदार्थ बहिरंग हैं, मेरी आत्मा से भिन्न हैं । इनसे तो मेरे निकटतर ये ज्ञातिजन हैं- जैसे कि "यह मेरी माता है, मेरा पिता है, मेरा भाई है, मेरी बहन है, मेरी पत्नी है, मेरे पुत्र हैं, मेरी पुत्री है, ये मेरे दास हैं, यह मेरा नाती है, मेरी पुत्र- वधू है, मेरा मित्र है, ये मेरे पहले और पीछे के स्वजन एवं परिचित सम्बन्धी है । ये मेरे ज्ञातिजन हैं, और मैं भी इनका आत्मीय जन हूँ ।”
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बुद्धिमान साधक को स्वयं पहले से ही सम्यक् प्रकार से जान लेना चाहिए कि इस लोक में मुझे किसी प्रकार का कोई दुःख या रोग- आतंक पैदा होने पर मैं अपने ज्ञातिजनों से प्रार्थना करूं कि हे भय का अन्त करने वाले ज्ञातिजनों ! मेरे इस अनिष्ट, अप्रिय यावत् दुःखरूप या असुखरूप दुःख या रोगातंक को आप लोग बराबर बांट ले, ताकि मैं इस दुःख से दुःखित, चिन्तित, यावत् अतिसंतप्त न होऊं । आप सब मुझे इस अनिष्ट यावत् अत्पीड़क दुःख या रोगातंक से मुक्त करा दें ।" इस पर वे ज्ञातिजन मेरे दुःख और रोगातंक को बांट कर ले लें, या मुझे इस दुःख या रोगातंक से मुक्त करा दें, ऐसा कदापि नहीं होता । भय से मेरी रक्षा करने वाले उन मेरे ज्ञातिजनों को ही कोई दुःख या रोग उत्पन्न हो जाए, जो अनिष्ट, अप्रिय यावत् असुखकर हो, तो मैं उन भयत्राता ज्ञातिजनों के अनिष्ट, यावत् दुःख या रोगातंक को बांट कर ले लूं, ताकि वे मेरे ज्ञातिजन दुःख न पाएँ यावत् वे अतिसंतप्त न हों, तथा मैं उनके किसी अनिष्ट यावत् दुःख या रोगातंक से मुक्त कर दूं, ऐसा भी कदापि नहीं होता ।
(क्योंकि) दूसरे के दुःख को दूसरा व्यक्ति बांट कर नहीं ले सकता । दूसरे के द्वारा कृत कर्म का फल दूसरा नहीं भोग सकता । प्रत्येक प्राणी अकेला ही जन्मता है, अकेला ही मरता है, प्रत्येक व्यक्ति अकेला ही त्याग करता है, अकेला ही उपभोग या स्वीकार करता है, प्रत्येक व्यक्ति अकेला ही झंझा आदि कषायों को ग्रहण करता है, अकेला ही पदार्थों का परिज्ञान करता है, तथा प्रत्येक व्यक्ति अकेला ही मनन- चिन्तन करता है, प्रत्येक व्यक्ति अकेला ही विद्वान् होता है, प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने सुख-दुःख का वेदन करता है । अतः पूर्वोक्त प्रकार से मनुष्य को पहले छोड़ देता है ।" अतः 'ज्ञातिजनसंयोग मेरे से भिन्न है, मैं भी ज्ञातिजन संयोग से भिन्न हूँ ।' तब फिर हम अपन से पृथक् इस ज्ञातिजनसंयोग में क्यों आसक्त हों ? यह भलीभांति जानकर अब हम ज्ञाति-संयोग का परित्याग कर देंगे ।
परन्तु मेघावी साधक को यह निश्चित रूप से जान लेना चाहिए कि ज्ञातिजनसंयोग तो बाह्य वस्तु है ही, इनसे भी निकटतर सम्बन्धी ये सब हैं, जिन पर प्राणी ममत्व करता है, जैसे कि ये मेरे हाथ हैं, ये मेरे पैर हैं, ये मेरी बांहें हैं, ये मेरी जांघें हैं, यह मेरा मस्तक है,