Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

View full book text
Previous | Next

Page 197
________________ १९६ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद लुब्ध, राग-द्वेष के वशीभूत एवं आर्त रहते हैं । वे न तो अपनी आत्मा को संसार से या कर्मपाश से मुक्त कर पाते हैं, न वे दूसरों को मुक्त कर सकते हैं, और ने अन्य प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्वों को मुक्त कर सकते हैं । वे अपने स्त्री-पुत्र, धन धान्य आदि पूर्वसंयोग से प्रभ्रष्ट हो चुके हैं, और आर्यमार्ग को नहीं पा सके हैं । अतः वे न तो इस लोक के होते हैं, और न ही पर लोक के होते हैं बीच में कामभोगों में आसक्त हो जाते हैं । इस प्रकार प्रथम पुरुष तज्जीव-तच्छरीखादी कहा गया है । [६४२] पूर्वोक्त प्रथम पुरुष से भिन्न दूसरा पुरुष पञ्चमहाभूतिक कहलाता है । इस मनुष्यलोक की पूर्व, आदि दिशाओं में मनुष्य रहते हैं । वे क्रमशः नाना रूपों में मनुष्यलोक में उत्पन्न होते हैं, जैसे कि कोई आर्य होते हैं, कोई अनार्य । यावत् कोई कुरूप आदि होते हैं । उन मनुष्यों में से कोई एक महान् पुरुष राजा होता है । यावत् उन सभासदों में से कोई पुरुष धर्मश्रद्धालु होता है । वे श्रमण और माहन उसके पास जाने का निश्चय करते हैं । वे किसी एक धर्म की शिक्षा देने वाले अन्यतीर्थिक श्रमण और माहन राजा आदि से कहते हैं-“हम आपको उत्तम धर्म की शिक्षा देंगे ।" 'हे भयत्राताओ ! मैं जो भी उत्तम धर्म का उपदेश आपको दे रहा हूँ, वही पूर्वपुरुषों द्वारा सम्यक्प्रकार से कथित और सुप्रज्ञप्त है ।" इस जगत् में पंचमहाभूत ही सब कुछ हैं । जिन से हमारी क्रिया या अक्रिया, सुकृत अथवा दुष्कृत कल्याण या पाप, अच्छा या बुरा, सिद्धि या असिद्धि, नरकगति या नरक के अतिरिक्त अन्यगति; अधिक कहाँ तक कहें, तिनके के हिलने जैसी क्रिया भी होती है । ___ उस भूत-समवाय को पृथक्-पृथक् नाम से जानना । पृथ्वी एक महाभूत है, जल दूसरा महाभूत है, तेज तीसरा महाभूत है, वायु चौथा महाभूत है और आकाश पांचवाँ महाभूत है । ये पांच महाभूत निर्मित नहीं हैं, न ही ये निर्मापित हैं, ये कृत नहीं है, न ही ये कृत्रिम हैं, और न ये अपनी उत्पत्ति के लिए किसी की अपेक्षा रखते हैं । ये पांचों महाभूत आदि एवं अन्त रहित हैं तथा अवश्य कार्य करने वाले हैं । इन्हें प्रवृत्त करनेवाला दूसरा पदार्थ नहीं है, ये स्वतंत्र एवं शाश्वत हैं । कोई पंचमहाभूत और छठे आत्मा को मानते हैं । कहते हैं कि सत् का विनाश नहीं होता और असत् की उत्पत्ति नहीं होती । “इतना ही जीव काय है, इतना ही अस्तिकाय है, इतना ही समग्र जीवलोक है । ये पंचमहाभूत ही लोक के प्रमुख कारण हैं, यहां तक कि तृण का कम्पन भी इन पंचमहाभूतों के कारण होता है ।" (इस दृष्टि से) 'स्वयं खरीदता हुआ, दूसरे से खरीद कराता हुआ, एवं प्राणियों का स्वयं घात करता हुआ तथा दूसरे से घात कराता हुआ, स्वयं पकाता और दूसरों से पकवाता हुआ, यहां तक कि किसी पुरुष को खरीद कर घात करने वाला पुरुष भी दोष का भागी नहीं होता क्योंकि इन सब कार्यों में कोई दोष नहीं है, यह समझ लो ।" वे क्रिया से लेकर नरक से भिन्न गति तक के पदार्थों को नहीं मानते । वे नाना प्रकार के सावध कार्यों के द्वारा कामभोगों की प्राप्ति के लिए सदा आरम्भ-समारम्भ में प्रवृत्त रहते हैं । अतः वे अनार्य, तथा विपरीत विचारखाले हैं । इन पंचमहाभूतवादियों के धर्म में श्रद्धा रखने वाले एवं इनके धर्म को सत्य मानने वाले राजा आदि इनकी पूजा-प्रशंसा तथा आदर सत्कार करते हैं, विषयभोग-सामग्री इन्हें भेंट करते हैं । इस प्रकार सावध अनुष्ठान में भी

Loading...

Page Navigation
1 ... 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257