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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
[५८१] जैसे पंख रहित पक्षी - शावक भी अपने आवास / घोंसले से उड़ने का प्रयास करता है, पर उड़ नहीं पाता है एवं उस पंखहीन तरुण का कौए आदि हरण कर लेते हैं । [५८२] बैसे ही अपुष्टधर्मी शैक्ष चारित्र को निस्सार मानकर निकलना चाहता है । उसे अनेक पाप धर्मी वैसे ही हर लेते हैं जैसे पंखहीन पक्षी - शावक को कौए आदि । [ ५८३ ] गुरुकुल में न रहने वाला संसारका अन्त नहीं कर सकता, यह जानकर मनुज गुरुकुल-वास एवं समाधि की इच्छा करे । गुरु वित्त पर अनुशासन करते हैं, अतः आशुप्रज्ञ गुरुकुल को न छोड़े ।
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[५८४] स्थान, शयन, आसन और पराक्रम में जो सुसाधुयुक्त है, वह समितियों एवं गुप्तियों में आत्मप्रज्ञ होता है । वह अच्छी रीति से [उपदेश] दे ।
[५८५ ] अनाश्रवी / मुनि कठोर शब्दों को सुनकर संयम में परिव्रजन करे । भिक्षु निद्रा एवं प्रमाद न करे । वह किसी तरह विचिकित्सा से पार हो जाए ।
[५८६] बाल या वृद्ध रानिक अथवा समव्रती द्वारा अनुशासित होने पर जो सम्यक् स्थिरता में प्रवेश नहीं करता है, वह नीयमान होने पर भी संसार को पार नहीं कर पाता । [५८७ ] शिथिलाचारी, बालक या वृद्ध, छोटी दासी और गृहस्थ द्वारा समय [ सिद्धांत] के अनुसार अनुशासित होने पर -
[५८८] उन पर क्रोध न करे, व्यथित न हो, न ही किसी तरह की कठोर वाणी बोले 'अब मैं वैसा करूँगा, यह मेरे लिए श्रेय है' ऐसा स्वीकार कर प्रमाद न करे ।
[५८९] जैसे वन में दिग्मूढ़ व्यक्ति को सत्यज्ञाता व्यक्ति हितकर मार्ग दिखलाते हैं। और वह दिग्मूढ सोचता है कि अमूढ़ पुरुष जो मार्ग बता रहे हैं, वही मेरे लिए श्रेय है । [ ५९०] उस मूढ़ को अमूढ़ का विशेष रूप से पूजन करना चाहिये । वीर ने यही उपमा कही है । इसके अर्थ को जानकर साधक सम्यक् उपनय करता है ।
[५९१] जैसे मार्गदर्शक नेता भी रात्रि के अंधकार में न देख पाने के कारण मार्ग नहीं जानता है पर वही सूर्योदय होने पर प्रकाशित मार्ग को जान लेता है ।
[५९२] वैसे ही अपुष्टधर्मी सेध अबुद्ध होने के कारण धर्म नहीं जानता है वही साधु जिनवचन से कोविद बन जाता है जैसे सूर्योदय होने पर नेता चक्षु द्वारा देख लेता है ।
[५९३] ऊर्ध्व, अधो और तिर्यक् दिशाओं में जो भी त्रस और स्थावर प्राणी हैं उनके प्रति सदा संयत होकर परिव्रजन करे मानषिक प्रद्वेष का विकल्प न करे ।
[५९४] प्रजा के मध्य द्रव्य एवं वित्त के व्याख्याकार से उचित समय पर समाधि के विषय में पूछे और कैवलिकसमाधि को जानकर उसे हृदय में स्थापित करे ।
[५९५] वैसा मुनि त्रिविध रूप सुस्थित होकर इनमें प्रवृत्त होता है । उससे शान्ति और [कर्म] निरोध होता है । त्रिलोकदर्शी कहते हैं कि वह पुनः प्रमाद में लिप्त नहीं होता । [५९६ ] वह भिक्षु अर्थ को सुनकर एवं समीक्षा कर प्रतिभावान् और विशारद हो जाता है । वह आदानार्थी मुनि तप और संयम को प्राप्त कर शुद्ध निर्वाह कर मोक्ष पाता है । [५९७ ] जो अवसरोचित्त जानकर धर्म की व्याख्या करते हैं वे बोधि को प्राप्त ज्ञाता संसार का अन्त करने वाले होते हैं । वे श्रुत के पारगामी विद्वान् अपने अपने और शिष्य के संदेह - विमोचन के लिए संशोधित जिज्ञासाओं की व्याख्या करते हैं ।