Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 180
________________ सूत्रकृत - १/९/-/४६८ के पास सदा आचरण की शिक्षा प्राप्त करे । [४६९] जो वीर, आत्मप्रज्ञा के अन्वेषी, धृतिमान् और जितेन्द्रिय हैं, ऐसे सुप्रज्ञ और सुतपस्वी आचार्य की सुश्रुषा करे । १७९ [४७०] गृह के दीप (प्रकाश) न देखने वाले मनुष्य भी ( प्रव्रज्या में ) पुरुषादानीय हो जाते हैं । वे बन्धन - मुक्त वीर जीने की आकांक्षा नहीं करते हैं । [४७१] [मुनि] शब्द और स्पर्श से अनासक्त तथा आरम्भ में अनिश्रित रहे । जो पूर्व में कहा गया, वह सर्व समयातीत है । [४७२] पंडित मुनि अतिमान, माया और सभी गौरवों को जानकर निर्वाण की खोज करे । ऐसा मैं कहता हूँ । अध्ययन - ९ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण अध्ययन - १० समाधि [४७३] मतिमान् ने अनुचिन्तन कर जो ऋजु समाधि-धर्म प्रतिपादित किया है, उसे सुनो । समाधि प्राप्त अप्रतिज्ञ और अनिदानभूत भिक्षु सम्यक् परिव्रजन करे । [४७४] ऊर्ध्व, अधो और तिर्यग् दिशाओं में जितने भी त्रस और स्थावर प्राणी हैं। उन्हें हस्त और पाद से संयमित कर अन्य द्वारा अदत्त पदार्थ ग्रहण न करे । [ ४७५] जो स्वाख्यातधर्मी एवं विचिकित्सातीर्ण है वह प्राणियों पर आत्मवत् व्यवहार कर लाढ़ देश में विचरण करे । जीवन के लिए आय न करे और सुतपस्वी भिक्षु संचय न करे । [४७६ ] मुनि प्राणियों पर सर्व-इन्द्रियों से संयत तथा सर्वथा विप्रमुक्त होकर विचरण करे । पृथक्-पृथक् रूप से विषण्ण, दुःख से आर्त और परितप्त प्राणियों को देखे । [४७७] अज्ञानी जीवों को दुःखी करता हुआ पाप कर्मों में आवर्तन करता है । वह स्वयं अतिपातकर पापकर्म करता है व नियोजित होकर भी कर्म करता है । [४७८] आदीनवृत्ति वाला भी पाप करता है, यह मानकर एकान्त समाधि का प्ररूपण किया । समाधि और विवेकरत पुरुष बुद्ध, प्राणातिपात विरत एवं स्थितात्मा है । [४७९] सर्व जगत् का समतानुप्रेक्षी किसी का भी प्रिय-अप्रिय न करे । दीन उठकर पुनः विषण्णा होता है । प्रशंसाकामी पूजा चाहता है । [४८०] जो निष्प्रयोजन आधाकर्म आहार की इच्छा से चर्या करता है, वह विषण्णता की एषणा करता है । स्त्री - आसक्त अज्ञानी परिग्रह का ही प्रवर्तन करता है । [४८१] वैरानुगृद्ध पुरुष कर्म-निचय करता है । यहाँ से च्युत होकर वह दुःख रूप दुर्गप्राप्त करता है । अतः मेघावी धर्म की समीक्षा कर सर्वतः विप्रमुक्त हो विचरण करे । [४८२] लोक में जीवितार्थी आय न करे, अनासक्त होकर परिव्रजन करे । निशम्यभाषी और विनीतगृद्ध हिंसान्वित कथा न करे । [४८३] आधाकर्म की कामना न करे और न कामना करने वाले का संस्तव करे । अनुप्रेक्षक अनुप्रेक्षापूर्वक स्थूल शरीर के स्त्रोत की छोड़कर उसे कृश करे ।

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