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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
[ ४५० ] हे विज्ञ ! ओद्देशिक, क्रीतकृत, प्रामित्य (उधार लिये गए ) आहृत पूतिनिर्मित और अनेषणीय आहार को समझो / त्यागो ।
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[ ४५१] हे विज्ञ ! आशूनि ( शक्ति-वर्धक) अक्षिराग, रसासक्ति, उत्क्षालन और कल्क ( उबटन) को समझो / त्यागो ।
[४५२] हे विज्ञ ! संप्रसारी ( असंयत भाषी), कृत्क्रिया के प्रशंसक, ज्योतिष्क और सागरिक पिण्ड को समझो / त्यागो ।
[४५३ ] हे विज्ञ ! अष्टापद ( द्यूत आदि) मत सीखो, वेध आदि मत बनाओ । हस्तकर्म और विवाद को समझो / त्यागो ।
[४५४] हे विज्ञ ! उपानह ( जूता ) छत्र, नालिका वालवीजन (पंखा ) परक्रिया एवं अन्योन्य क्रिया को समझो / त्यागो ।
[४५५] मुनि हरित स्थान पर उच्चार - प्रस्त्रवण ( मलमूत्र विसर्जन) न करे तथा वनस्पति इधर-उधर कर अचित्त जल से भी कदापि आचमन न करे ।
[४५६] विज्ञ गृहस्थ के पात्र में कभी भी आहार- पानी का सेवन न करे । अचेल [मुनि ] परवस्त्र को भी समझे / त्यागे ।
[४५७ ] हे विज्ञ ! आसंन्दी ( कुर्सी), पलंग, गृहान्तर की शय्या, संप्रच्छन या स्मरण को समझो / त्यागो ।
[४५८ ] यश, कीर्ति, श्लोक [प्रशंसा ], वंदनपूजन और सम्पूर्ण लोक के जितने भी काम हैं, उन्हें समझो / त्यागो ।
[४५९ ] हे प्रज्ञ ! यदि भिक्षु (गृहस्थ से) कार्य निष्पन्न कराए तो अनुप्रदाता के अन्नपान को समझे ।
[४६०] अनन्तज्ञानदर्शी, निर्ग्रन्थमहामुनि महावीर ने ऐसा श्रुतधर्म का उपदेश दिया । [ ४६१] मुनि बोलता हुआ भी मौनी रहे, मर्मवेधी वचन न बोले, मायावी स्थान का वर्जन करे, अनुवीक्षण कर बोले ।
[४६२] ये तथ्य भाषाएँ हैं जिन्हें बोलकर मनुष्य अनुतप्त होता है । जो क्षण बोलने योग्य नहीं है उस क्षण में नहीं बोलना चाहिये ।
[ ४६३] मुनि होलावाद सखिवाद एवं गौत्रवाद न बोले । तू तू ऐसा अमनोज्ञ शब्द सर्वथा न कहे ।
[ ४६४ ] साधु सदैव अकुशील [सुशील] रहे और संसर्ग न करे । वह विज्ञ अनुकूल उपसर्गो को भी समझे ।
[ ४६५ ] मुनि किसी अन्तराय / कारण के बिना गृहस्थ के घर में न बैठे । कामक्रीड़ा एवं कुमारक्रीड़ा न करे एवं अमर्यादित न हँसे ।
[ ४६६ ] मनोहर पदार्थों के प्रति अनुत्सुक रहे यतनापूर्वक परिव्रजन करे । चर्या में अप्रमत्त रहे [उपसर्गो] से स्पृष्ट होने पर उन्हें सहन करे ।
[४६७ ] हन्यमान अवस्था में भी क्रोध न करे, कुछ कहे जाने पर उत्तेजित न हो, प्रसन्न मन से सहन करे, कोलाहल न करे ।
[४६८ ] प्राप्त काम भोगों की अभिलाषा न करे, यह विवेक कहा गया है । बुद्धों