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सूत्रकृत - १/३/१/१६५
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अध्ययन- ३ उपसर्गपरिज्ञा उद्देशक- १
[१६५] कायर मनुष्य शिशुपाल की तरह स्वयं को तभी तक शूर एवं महारथ मानता है, जब तक युध्यमान दृढ़धर्मी विजेता कृष्ण को नही देख लेता ।
[१६६ ] संग्राम में उपस्थित हो जाने पर शूरवीर रणशीर्ष हो जाते हैं । जिस प्रकार माता युद्धविक्षिप्त पुत्र को नहीं जानती है ।
[१६७ ] इसी प्रकार भिक्षु-चर्या में अकोविद अपुष्ट साधक भी अपने आपको तभी तक शूरवीर मानता है जब तक वह रुक्ष संयम का सेवन नहीं कर लेता ।
[१६८ ] जब हेमन्त माह में ठंडी हवा लगती है, तब मन्द पुरुष वैसे ही विषाद करते हैं जैसे राज्य से च्युत क्षत्रिय विषाद करता हैं ।
[१६९] जब ग्रीष्म- ताप से स्पृष्ट होकर मनुष्य विमनस्क और पिपासित हो जाते हैं, तब वे वैसे ही विषाद करते हैं जैसे थोड़े जल में मछली विषाद करती है ।
[१७०] दत्तैषणा सदा दुःख है । याचना दुष्कर है । साधारण जन यह कहते हैं कि ये पाप-कर्म के फल भोग रहे हैं, अभागे हैं ।
[ १७१] गावों में या नगरों इन शब्दों को सहन न कर सकनेवाले मंद मनुष्य वैसे ही विषाद को प्राप्त करता है, जैसे संग्राम में भयभीत पुरुष विषाद करता है ।
[ १७२ ] कोई क्रूर कुत्ता क्षुधित भिक्षु को काटता है, तो मूढ़ भिक्षु वैसे ही दुःखी होता है, जैसे अग्नि-स्पृष्ट होने पर प्राणी दुःखी होता है ।
[१७३] प्रतिकूल पथ पर चलने वाले कुछ लोग बोलते हैं कि ये इस प्रकार का जीवन जीने वाले प्रतिकार करते हैं ।
[ १७४ ] कुछ लोग कहते हैं कि ये नग्न हैं, पिंडलोलक, अधम, मुण्डित, कण्डुक, विकृत अङ्गी, स्नानहीन और असमाहित हैं ।
[१७५] उनमें जो अज्ञानी एवं विप्रतिपन्न हैं वे मोह से विवेकमूढ़ होकर अन्धकार से गहन अन्धकार में चले जाते हैं ।
[१७६] मुनि डांस-मच्छरों के काटने तथा तृण-स्पर्श न सहने के कारण सोचता है मैंने परलोक नहीं देखा है, अतः मृत्यु अतिरिक्त और क्या होगा ?
[१७७] केशलुंचन से संतप्त और ब्रह्मचर्य पालन से पराजित मंद मनुष्य वैसे ही विषाद को प्राप्त करते हैं जैसे जाल में फंसी मछलियाँ विषाद करती है ।
[१७८] आत्मघाती आचार वाले, मिथ्यात्वस्थित, हर्ष और द्वेष से युक्त कुछ अनार्यपुरुष साधु को पीड़ा देते हैं ।
[१७९] कुछ अज्ञानी लोग सुव्रती भिक्षु को गुप्तचर एवं चोर समझकर कषाय-वचन से बांध देते हैं ।
[१८०] वहाँ डंडे, मुष्टि अथवा फलक से पीटे जाने पर वह अज्ञ अपने ज्ञातिजनों को वैसे ही याद करता है, जैसे क्रुद्धगामी स्त्री याद करती है ।
[१८१] हे वत्स ! ये समस्त स्पर्श दुस्सह और कठोर हैं । इनसे विवश होकर भिक्षु
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