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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
[३४८] ये दुःख चिरकाल तक अज्ञानी को निरन्तर स्पर्शित करते हैं । हन्यमान का कोई त्राता नहीं है । एक मात्र वह स्वयं ही उन दुःखों का अनुभव करता है ।
[३४९] पूर्व में जैसा कर्म किया है वही सम्पराय (परभव) में आता है । एकान्त दुःख के भव का अर्जन कर वे दुःखी अनन्त दुःख का वेदन करते हैं ।
[३५०] धीर इन नारकीय दुःखों को सुनकर समस्त लोक में किसी की हिंसा न करे । एकान्त द्रष्टा एवं अपरिग्रही होकर लोक का बोध प्राप्त करे, किन्तु वशवर्ती न बने ।
[३५१] इस तरह तिर्यञ्च, मनुष्य, देव एवं नारक इन चारों में अनन्त विपाक है । वह सभी को ऐसा समझकर धुत का आचरण करता संयम पालन करता हुआ काल की आकांक्षा करे । -ऐसा मैं कहता हूँ ।
अध्ययन-५ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् अनुवाद पूर्ण
(अध्ययन-६ वीरस्तुति) [३५२] श्रमणों, माहणों, गृहस्थों और अन्य तीर्थकों ने पूछा- वह कौन है जिसने शाश्वत और अनुपम धर्म का समुचित समीक्षण कर निरुपण किया ।
[३५३] भिक्षु ! तुम यथातथ्य के ज्ञाता हो, जैसा तुमने सुना है, जैसा निश्चित किया है वैसा कहो- ज्ञात पुत्र का ज्ञान, दर्शन और शील कैसा था ?
[३५४] वे क्षेत्रज्ञ, कुशल, महर्षि, अनन्तज्ञानी और अनन्तदर्शी थे । उन यशस्वी और चक्षुस्पथ में स्थित ज्ञात पुत्र को तुम जानो और उनके धर्म एवं धैर्य को देखो ।
[३५५] ऊर्ध्व, अधो और तिर्यक् दिशाओं में जो त्रस और स्थावर प्राणी हैं, उन्हें नित्य अनित्य-दृष्टियों से समीक्षित कर प्रज्ञ ने द्वीप-तुल्य सद्धर्म का कथन किया है ।
[३५६] वे सर्वदर्शी ज्ञानी होकर निरामगन्ध, धृतिमान, स्थितात्मा, सम्पूर्ण लोक में अनुत्तर विद्वान, अपरिग्रही, अभय और अनायु थे ।
[३५७] वे भूतिप्रज्ञ प्रबुद्ध अनिकेतचारी, संसारपारगामी, धीर, अनंतचक्षु, तप्त सूर्यवत् अनुपम देदिप्यमान और प्रदीप्त अग्नि की तरह अंधकार में प्रकाशोत्पादक थे ।
[३५८] यह जिनधर्म अनुत्तर है आशुप्रज्ञ काश्यप मुनि इसके नेता हैं । जैसे स्वर्ग में महानुभाव इन्द्र विशिष्ट प्रभावशाली एवं हजारों देवों में नेता होता है ।
[३५९] वे प्रज्ञा से समुद्रवत् अक्षय महोदधि से पारगामी अनाविल/विशुद्ध, अकषायी मुक्त तथा देवाधिपति शुक्र की तरह द्युतिमान थे ।
. [३६०] जैसे सुदर्शन सब पर्वतों में श्रेष्ठ है वैसे ही सुरालय में आनन्ददाता अनेक गुण सम्पृक्त वे ज्ञातपुत्र वीर्य से प्रतिपूर्ण वीर्य हैं ।
[३६१] सुमेरु का प्रमाण एक लाख योजन है । वह तीन काँडों वाला तथा पांडुक से सुशोभित है । निन्यानवें हजार योजन ऊँचा है तथा एक हजार योजन अधोभाग में है ।
[३६२] वह गगनचुम्बी सुमेरु पृथ्वी पर स्थित है । जिसकी सूर्य परिक्रमा करता है । वह हेमवर्णीय एवं बहु आनन्ददायी है । वहाँ महेन्द्र आनंदानुभव करते हैं ।
[३६३] यह पर्वत अनेक शब्दों से प्रकाशमान है । कंचनवर्णीय है । वह गिरिवर पर्वतों में अनुत्तर है । दुर्गम है और आकाश की तरह दिव्य है ।