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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
रहित तथा संसार के अपारगामी हो ।
[२१४] इस प्रकार कहने पर मोक्ष विशारद भिक्षु उन्हें कहे कि इस प्रकार बोलते हुए तुम लोग द्विपक्ष का ही सेवन कर रहे हो ।
[२१५] तुम पात्र में भोजन करते हो, ग्लान के लिए भोजन मंगवाते हो, बीज और कच्चे जलका उपयोग करते हो और मुनि के उद्देश्य से भोजन बनाते हो ।
[२१६] मनुष्य तीव्र अभिताप से लिप्त, विवेक रहित और असमाहित है, किन्तु कामभोग के घाव को अधिक खुजलाना श्रेयस्कर नहीं है । यह अपराध को प्रोत्साहन है ।
[२१७] ज्ञानी भिक्षु अप्रतिज्ञ होकर उन अनुशिष्ट लोगों से तत्त्व-पूर्वक कहे-आपका यह मार्ग नियत/युक्ति संगत नहीं है । आपकी कथनी और करनी भी असमीक्ष्य है।
[२१८] गृहस्थ द्वारा लाये हुए आहार का उपभोग श्रेयस्कर है; भिक्षु द्वारा लाये हुए का नहीं-यह कथन बांस के अग्रभाग की तरह कमजोर है ।
[२१९] जो धर्म-प्रज्ञापना है वह आरम्भ की विशोधिका है । इन दृष्टियों से पूर्व में यह प्रकल्पना नहीं थी।
[२२०] समग्र युक्तियों से अपना मत-स्थापन अशक्य लगने पर लोग वाद को छोड़कर प्रगल्भिता में उत्तर आते हैं ।
[२२१] राग दोष/द्वेष से अभिभूत और मिथ्यात्व से अभिद्रुत/ओतप्रोत वे वैसे ही आक्रोश की शरण स्वीकार कर लेते हैं, जैसे तङ्गण (अनार्य) पर्वत को स्वीकारता है ।
[२२२] आत्मगुण समाहित पुरुष बहुगुण निष्पन्न चर्चा करे । वह वैसा आचरण करे जिससे कोई विरोधी न हो ।
[२२३] काश्यप महावीर द्वारा प्रवेदित धर्म को प्राप्त कर भिक्षु अग्लान-भाव से ग्लान की सेवा करे ।
२२४] दृष्टिमान् व परिनिवृत्त भिक्षु श्रेयस्कर धर्म को जानकर मोक्ष प्राप्ति होने तक उपसर्गों का नियमन करते हुए पख्रिजन करे । -ऐसा मैं कहता हूँ ।
| अध्ययन-३ उद्देशक-४ | [२२५] तप्त तपोधनी महापुरुष पहले जल से सिद्धि सम्पन्न कहे गये हैं । किन्तु मंद पुरुष वहाँ विवाद करता है ।।
[२२६] वैदेही नमि भोजन छोड़कर और रामगुप्त भोजन करते हुए तथा बाहुक और नारायण ऋषि जल पीकर (सिद्धि सम्पन्न कहे गये हैं।
[२२७] महर्षि आसिल, देविल, द्वीपायन एवं पराशर जल, बीज और हरित का सेवन करते हुए सिद्धि [सम्पन्न कहे गये हैं ।]
२२८] पूर्वकालिक ये महापुरुष इस समय भी मान्य एवं कथित है । इन्होंने बीज एवं जल का उपभोग करके सिद्धि प्राप्त की थी, ऐसा मैंने परम्परा से सुना है ।
२२९] वहाँ मन्द-पुरुष वैसे ही विषाद करते हैं, जैसे भार ग्रस्त गधा । भार के सम्भ्रम से वे पीछे चलते रहते हैं ।
[२३०] कुछ लोग यह कहते हैं कि साता के द्वारा ही साता विद्यमान होती है । यहाँ