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सूत्रकृत-१/४/१/२६३
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[२६३] अनके लोग/श्रमण गार्हस्थ्य का अपहरण कर मिश्र भाव प्रस्तुत करते हैं । वे वाग्वीर/कुशील उसे ही ध्रुव-मार्ग कहते हैं ।
[२६४] वह परिषद् में स्वयं को शुद्ध बतलाता है पर एकान्त में दुष्कर्म करता है । तत्त्ववेत्ता उसे जानते हैं कि यह मायावी है, महाशठ है ।
[२६५] वह अपना दुष्कृत नहीं बतलाता । आविष्ट होने पर वह बाल-पुरुष आत्मप्रशंसा करता है । स्त्री-वेद का अनुचिन्तन मत करो-इस वाणी-उद्यम से वह खिन्न होता है ।
[२६६] जो पुरुष स्त्रियों के साथ सहवास कर चुके हैं, स्त्रीवेद के परिसर के ज्ञाता है । उनमें कुछ प्रज्ञा से समन्वित होते हुए भी स्त्रियों के वशीभूत हो जाते हैं ।
[२६७] व्यभिचारी मनुष्यों के हाथ-पैर छेद कर, आग में सेककर, चमड़ी मांस निकालकर उसके शरीर को क्षार से सिंचित किया जाता है ।
[२६८] नाक, कान एवं कंठ के छेदित होने पर भी पाप से संस्तप्त पुरुष यह नहीं कहते कि हम पुनः ऐसा पाप नहीं करेंगे ।
[२६९] यह लोक श्रुति है एवं स्त्री-वेद में भी कथित है कि स्त्रियाँ कही हुई बात का कर्मणा पालन नहीं करती ।
[२७०] वह मन से चिन्तन कुछ और करती है वाणी से कुछ और तथा कर्म कुछ और ही करती है । इसलिए भिक्षु स्त्रियों को बहुमायावी जानकर उन पर श्रद्धा न करे ।
[२७१] विविध वस्त्र एवं अलंकार से विभूषित युवती श्रमण से कहती है । भदन्त ! मुझे धर्मोपदेश दे । मैं विरत हो गई हूँ, संयम का पालन करूँगी । ।
[२७२] अथवा श्राविका होने के कारण मैं तुम्हारी सहधर्मिणी हूँ । किन्तु विद्वान् स्त्री के साथ सहवास से वैसे विषाद करता है, जैसे अग्नि के सहवास से लाख का घड़ा ।
[२७३] जैसे लाख का घड़ा अग्नि से तप्त होने पर शीध्र ही नाश को प्राप्त हो जाता है, वैसे ही स्त्री-सहवास से अनगार विनष्ट हो जाता है ।
[२७४] कुछ लोग/भिक्षु पाप-कर्म करते हैं पर पूछने पर कहते हैं-मैं पाप नहीं करता हूँ । यह स्त्री मेरी अङ्कशायिनी रही है ।
[२७५] बाल पुरुष की यह दोहरी मंदता है कि वह कृत् को अस्वीकार करता है । वह पूजा-कामी विषण्णता की एषणा करने वाला दुगुना पाप करता है ।
[२७६] अवलोकनीय आत्मगत अनगार को वह निमन्त्रण करती हुई कहती है तारक ! वस्त्र या पात्र या अन्न अथवा पानी ग्रहण करे ।
[२७७] भिक्षु इसे प्रलोभन समझे । घर आने की इच्छा न करे । विषय-पाश में बंधने वाला मन्द पुरुष पुनः मोह में लौट आता है । -ऐसा मैं कहता हूँ ।
| अध्ययन-४ उदेशक-२ | [२७८] ओजवान् सदा अनासक्त रहे । भोगकामी पुनः विरक्त हो जाये । श्रमणों के भोगों को सुनो, जैसा कुछ भिक्षु भोगते है ।
[२७९] (स्त्रियाँ उस) भेद विज्ञान शून्य, मूर्च्छित एवं काम में अतिप्रवृत्त भिक्षु को वश में करने के पश्चात् पैर से उसके मस्तिष्क पर प्रहार करती है ।