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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
वैसे ही घर लौट आता है, जैसे बाणों से आहत हाथी । -ऐसा मैं कहता हूँ ।
| अध्ययन-३ उद्देशक-२ || [१८२] ये सभी सूक्ष्म संग (सम्बन्ध) भिक्षुओं के लिए उपसर्ग है । यहाँ जो कोई साधु विषदा करते हैं, वे संयम-यापन में समर्थ नहीं हो पाते ।
[१८३] कुछ ज्ञातिजन प्रव्रज्यमान भिक्षु को देखकर/घेरकर रोते हैं । कहते हैं तात ! हमारा पालन-पोषण करो, हमें संतुष्ट करो, हमें किसलिए छोड़ रहे हो ?
[१८४] हे तात ! तुम्हारे पिता वृद्ध हैं, यह तुम्हारी बहिन छोटी है, तात ! तुम्हारे ये सहोदर आज्ञाकारी हैं, फिर तुम हमें क्यों छोड़ रहे हो ?
[१८५] तात ! तुम माता-पिता का पोषण करो, इससे लोक सफल होगा । तात ! लौकिक-व्यवहार यही है कि माता-पिता का पालन करना चाहिये ।
[१८६] तात ! तुम्हारे उत्तरोत्तर उत्पन्न और मधुरभाषी छोटे-छोटे पुत्र है । तात ! तुम्हारी पत्नी नव यौवना है, अतः वह अन्यजन के पास न जा सके ।
[१८७] हे तात ! आप घर चलिए । घर का कोई भी काम मत करना । हम सब कार्य संभालेगे । आप एक दफा घर से नीकल गये है । अब आप वापस अपने घर पधारीए ।
[१८८] अगर आप एकबार घर आकर, स्वजनो को मिल जाएंगे तो आप अश्रमण नहीं बन जाएंगे । गृहकार्य में इच्छा रहित होकर अपनी रुचि अनुसार कार्य करे तो भी आपको कौन रोकने वाला है ?
[१८९] हे तात ! आपके उपर जो कर्ज था वह भी हमने बांट लिया है और आपको व्यवहार चलाने के लिए जितना धन-सुवर्ण आदि चाहिए वह भी हम आपको देंगे ।
[१९०] इस प्रकार करुणार्द्र हो कर बन्धु साधु को शिक्षा वचन कहते हैं । उस ज्ञातिजनो के संग से बंधा हुआ भारेकर्मी आत्मा प्रवज्या छोड़कर घर वापस आ जाता है ।
[१९१] जिस तरह वन में उत्पन्न हुए वृक्ष को वनलताए बांध लेती है, उसी तरह साधु के चित्त में अशांति उत्पन्न करके उनको ज्ञातिजन अपने स्नेहपाश में बांध लेते है ।
[१९२] जब वह साधु स्वजनवर्ग के स्नेह में बंध जाता है; तब वे स्वजन ऊस साधु को ऐसे रखते है जैसे पकडा हुआ नया हाथी । या नव प्रसूता गाय अपने बछडे को अलग नहीं होने देती वैसे ही वे परिवारजन उस घर आये साधु के निकट ही रहेते है ।
[१९३] स्वजन आदि का यह स्नेह मनुष्यो के लिए समुद्र की तरह दुस्तर है । स्वजन आदि में मूर्छित होकर असमर्थ बना हुआ मनुष्य क्लेश को प्राप्त करता है ।
[१९४] स्वजन संग को संसारका कारण मानकर साधु उसका त्याग करे क्योंकी स्नेह संबंध कर्म का महाआश्रव द्वार है । सर्वज्ञ कथित अनुत्तर धर्म का श्रवण करके साधु असंयमी जीवन की इच्छा न करे ।
[१९५] काश्यपगोत्रीय भगवान महावीर ने यह स्नेह सम्बन्धो को आवर्त की उपमा दी है । जो ज्ञानी पुरुष है, वह तो ईससे दूर हो जाता मगर अज्ञानी ईस स्नेह में आसक्त हो कर दुःखी होते है ।
[१९६] चक्रवर्ती आदि राजा, राजमंत्री, पुरोहित आदि ब्राह्मण एवं अन्य क्षत्रियजन