Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 160
________________ सूत्रकृत - १/२/२/१३१ १५९ [१३१] जीवन संस्कृत नहीं कहा गया है, तथापि अज्ञानी धृष्टता करता है । अज्ञ स्वयं को पाप से भरता जाता है, यह सोचकर मुनि मद नहीं करता है । [१३२] माया एवं मोह से आच्छादित प्रजा इच्छाओं के कारण सहजतः नष्ट होती है, किन्तु ज्ञानी कठिनाई से नष्ट होता है । वह प्रशंसा, निन्दात्मक- वचन सहन करता है । [१३३] जैसे अपराजित जुआरी कुशल पासों से जूआ खेलता हुआ कृत् [दाव] को ही स्वीकार करता है, कलि, त्रेता या द्वापर को नहीं । [१३४] इसी प्रकार लोक में त्राता द्वारा जो अनुत्तर-धर्म कथित है उसे ग्रहण करे । पण्डित - पुरुष शेष को छोड़कर कृत् को ही स्वीकारता है । यही हितकर है । [१३५ ] यह मेरे द्वारा अनुश्रुत है कि ग्राम धर्म (मैथुन) सब विषयों में प्रधान कहा गया है । जिससे विरत पुरुष ही काश्यप-धर्म का आचरण करते हैं । [१३६] जो महान् महर्षि, ज्ञाता, महावीर के कथित [ धर्म] का आचरण करते हैं, वे उत्थित हैं, वे समुचित हैं, वे एक दूसरे को धर्म में प्रेरित करते हैं । [१३७] पूर्वकाल में भुक्त भोगों को मत देखो । उपधि को समाप्त करने की अभिकांक्षा करो । जो विषयों के प्रति नत नहीं हैं, वे समाधि को जानते हैं । [ १३८] संयत- पुरुष कायिक, प्राश्निक और सम्प्रसारक न बने । अनुत्तर धर्म को M जानकर कृत्-कार्यो के प्रति ममत्व न करे । [१३९] ज्ञानी पुरुष अपने दोषों को न ढके, अपनी प्रशंसा न करे, उत्कर्ष प्रकाश न करे । संयम रखने वाले प्रणत- पुरुष को ही सुविवेक मिलता है । [१४०] मुनि अनासक्त, स्वहित, सुसंवृत, धर्मार्थी, उपधानवीर्य / तप-पराक्रमी एवं जितेंद्रिय होकर विचरण करे, क्योंकि आत्महित दुःख से प्राप्त होता है, दुःसाध्य है । [१४१] विश्व-सर्वदर्शी, ज्ञातक-मुनि महावीर ने सामायिक का प्रतिपादन किया है। वह न तो अनुश्रुत है, न ही अनुष्ठित है । [१४२] इस प्रकार महान् अन्तर को जानकर, धर्म-सहित होकर, गुरु की भावना का अनुवर्तन कर कई विरत मनुष्यों ने संसार-समुद्र पार किया है । ऐसा मैं कहता हूँ । अध्ययन- २ उद्देशक- ३ [ १४३ ] संवृत्तकर्मी भिक्षु के लिए अज्ञानता से जो दुःख स्पृष्ट होता है, वह संयम क्षीण होता है । पंडित पुरुष मरण को छोड़कर चले जाते हैं । [१४४ ] जो विज्ञापन से अनासक्त हैं, वे तीर्णपुरुष के समान कहे गए हैं । अतः ऊर्ध्व (मोक्ष) को देखो, काम को रोगवत् देखो । [१४५] जैसे वणिक् द्वारा आनीत उत्तम वस्तु को राजा ग्रहण करता है, वैसे ही संयमी रात्रि - भोजन - त्याग आदि परम महाव्रतों को धारण करते हैं । [१४६ ] जो सुखानुगामी अत्यासक्त, काम-भोग में मूर्च्छित और कृपण के समान धृष्ट हैं, वे प्रतिपादित समाधि को नहीं जान सकते । [१४७ ] जैसे व्याधि से विक्षिप्त एवं प्रताड़ित बैल बलहीन हो जाता है, दुर्बल होकर भार वहन नहीं कर सकता, क्लेश पाता है ।

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