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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
[११३] चाहे कोई अधिपति हो या अनायक / भृत्य; इस मौन-पद / मुनि-पद में उपस्थित होने के बाद लज्जा न करे । सदैव समता - पूर्वक विचरण करे ।
[११४] संशुद्ध-श्रमण संयम में स्थित रहकर अहङ्कार-शून्य होकर समता में परिव्रजन करता है । समाहित- पंडित मृत्युकाल तक संयमाराधन करता है ।
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[११५] दूरदृष्टि-मुनि अतीत और अनागत-धर्म का अनुपश्यी है । माहण ( ज्ञानी) कठोर वचनों से आहत होने पर सिद्धांत / समत्व में रत रहता है ।
[११६] प्रज्ञावान मुनि सदा समता-धर्म का उपदेश दे । सूक्ष्मदर्शी ज्ञानी न तो कभी क्रोध करे, न मान करे ।
[११७] जो बहुजन नमन के लिए सभी अर्थो / विषयों से अनिश्रित, सदा सरोवर की तरह स्वच्छ है, उसके लिए काश्यपधर्म प्रकाशित किया है ।
[११८ ] अनन्त प्राणी पृथक्-पृथक् हैं । प्रत्येक प्राणी में समता है, जो मौन-पद ( मुनि - पद) में स्थित है, वह पण्डित विरति का पालन करे -घात न करे ।
[११९] धर्म का पारगामी एवं आरम्भ / हिंसा के अंत में स्थित मुनि है, परन्तु ममत्वयुक्त- पुरुष शोक करते हैं, तथापि अपने परिग्रह को नहीं पाते हैं ।
[१२० ] ज्ञानी को [ परिग्रह] इस लोक में भी दुःखदायी और परलोक में भी दुःखदायी हैं । ऐसा विध्वंसधर्मा ज्ञानी गृह-निवास कैसे कर सकता है ?
[१२१] महान् परिगोप (कीचड़ ) को जानकर भी जो वंदन - पूजन से सूक्ष्म शल्य को नहीं निकाल पाता है, उस ज्ञानी को संस्तव छोड़ देना चाहिए ।
[१२२] भिक्षु सदा वचन का संयम, मन का संवर एवं उपधान - वीर्य (तपो - बली) होकर एकाकी विचरण करे । कायोत्सर्ग, शयन एवं ध्यान अकेले ही करे ।
[१२३] मुनि शून्य - गृह का द्वार बन्द न करे, न खोले । पूछने पर न बोले, घर का परिमार्जन न करे और न ही तृणसंस्तार करे ।
[ १२४ ] मुनि सूर्यास्त होने पर सम एवं विषम स्थान पर अनाकूल रहे । वहाँ चरक या रेंगने वाले, भैरव या खून चूसने वाले, सरीसृप हो तो भी वहाँ रहे ।
[१२५] शून्य- गृह में स्थित महामुनि तिर्यक्, मनुज, दिव्यज- तीनों उपसर्गों को सहन करे । भय से रोमांचित न हो ।
[१२६] वह भिक्षु जीवन का आकांक्षी न बने एवं न ही पूजन का प्रार्थी बने । शून्यगृह में स्थित भिक्षु के भैरव आदि प्राणी अभ्यस्त / सह्य हो जाते हैं ।
[१२७] उपनीत (आत्मरत) चिन्तनशील, एकांत स्थान का सेवन करने वाले एवं भय से अविचलित रहने वाले साधु के सामायिक होती है ।
[१२८] गर्म जल एवं गर्म भोजन करने वाले, धर्म में स्थित एवं लज्जित मुनि के लिए राजा का संसर्ग अनुचित है । इससे तथागत भी असमाधि पाता है ।
[१२९] कलह करने वाले, तिरस्कारपूर्ण और कठोर वचन बोलने वाले भिक्षु का बहु/ परम अर्थ नष्ट हो जाता । इसलिए पण्डित कलह न करे ।
[१३०] शीतोदक (सचित्त - जल) से जुगुप्सा करने वाला, अप्रतिज्ञ निष्काम - प्रवृत्ति से दूर और जो गृह-मत्त भोजन नहीं करे, उसके लिए सामायिक कथित है ।