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सूत्रकृत - १/१/३/६६
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[ ६६ ] अथवा लोक स्वयम्भू कृत है ऐसा महर्षि ने कहा है । उसने मृत्यु से माया विस्तृत की, अतः लोक अशाश्वत है ।
[ ६७ ] कुछ ब्राह्मण और श्रमण कहते हैं जगत् अंडे से उत्पन्न है । उस से ही तत्त्वों की रचना हुई है, जो इसे नहीं जानते, वे मृषा बोलते हैं ।
[ ६८ ] लोक अपनी पर्यायों से कृत है- यह कहना चाहिये । वे तत्त्व को नहीं जानते हैं क्योंकि यह लोक कभी विनाशी नहीं है ।
[ ६९ ] दुःख अमनोज्ञ की निष्पत्ति है, यह जानना चाहिये । जो उत्पत्ति को नहीं जानते हैं, वे संवर को कैसे जानेंगे ?
[ ७०] कुछ वादियों ने कहा कि आत्मा शुद्ध अपापक- पाप रहित है, किन्तु क्रीड़ा और प्रद्वेष के कारण वही अपराध करती हैं ।
[ ७१] यह मनुष्य संवृत मुनि होता है, बाद में अपापक होता है । जैसे विकट जल ही रजसहित और रजरहित हो जाता है ।
[७२] मेघावी पुरुष इन वादों का अनुचिंतन / विवेचन करके ब्रह्मचर्य में वास करे । सभी प्रावादक पृथक्-पृथक् हैं और वे अपनी अपनी बातों का आख्यान करते हैं ।
[७३] [वे कहते हैं- ] अपने-अपने सम्प्रदायमान्य अनुष्ठान से ही सिद्धि होती है, अन्यथा नहीं । वशवर्ती - पुरुष के अधोजगत् में भी सर्व काम समर्पित पूर्ण हो जाते हैं । [७४] कुछ वादी कहते हैं, वे [जन्मजात ] सिद्ध और निरोगी हो जाते हैं । इस तरह सिद्धि को ही प्रमुख मानकर वे अपने आशय में ग्रथित / आबद्ध है |
[ ७५ ] वे असंवृत मनुष्य इस अनादि संसार में बार-बार भ्रमण करेंगे । वे कल्प परिमित काल तक आसुर एवं किल्विषिक स्थानों में उत्पन्न होते हैं । ऐसा मैं कहता हूँ । अध्ययन - १ उद्देशक - ४
[ ७६ ] हे मुनि ! बाल - पुरुष स्वयं को पंडित मानते हुए विजयी होने पर भी शरण नहीं हैं । वे पूर्व संयोगों को छोड़कर भी कृत्यों (गृहस्थ-धर्म) के उपदेशक हैं ।
[७७] विद्वान् भिक्षु उनके मत को जानकर उनमें मूर्च्छा न करे । अनुत्कर्ष और अल्पलीन मुनि मध्यस्थ भाव से जीवन-यापन करे ।
[७८] कुछ दार्शनिकों ने कहा है कि परिग्रह और हिंसा करते हुए भी मुनि हो सकते हैं, किन्तु ज्ञानी भिक्षु अपरिग्रह और अनारम्भ को भिक्षुधर्म जान कर हिंसादि परिव्रजन करे । [७९] विद्वान मुनि गृहस्थ- कृत आहार की एषणा / याचना करे और प्रदत्त आहार को ग्रहण करे । वह आहार में अगृद्ध और विप्रमुक्त होकर अवमान का परिवर्जन करे ।
[८०] कुछ दर्शनों में कहा गया है कि लोकवाद सुनना चाहिए, किन्तु वह विपरीत बुद्धि से उत्पन्न है एवं दूसरों द्वारा कथित बात का अनुगमन मात्र है ।
[८१] [कुछ कहते हैं -] लोक नित्य, शाश्वत और अविनाशी है । अतः अनन्त है; पर धीर - पुरुष नित्य लोक को अन्तवान् देखता है ।
[८२] कुछ लोगों ने कहा है कि लोक अपरिमित जाना जाता है, लेकिन धीर - पुरुष उसे परिमित देखता / जानता है ।