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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर भगवान् ने अभिनिष्क्रमण करने का अभिप्राय किया |
[५१४] श्री जिनवरेन्द्र तीर्थंकर भगवान् का अभिनिष्क्रमण एक वर्ष पूर्ण होते ही होगा, अतः वे दीक्षा लेने से एक वर्ष पहले सांवत्सरिक-वर्षी दान देना प्रारम्भ कर देते हैं । प्रतिदिन सूर्योदय से लेकर एक पहर दिन चढ़ने तक उनके द्वारा अर्थ का दान होता है ।
[५१५] प्रतिदिन सूर्योदय से एक प्रहर पर्यन्त, जब तक वे प्रातराश नहीं कर लेते, तब तक, एक करोड़ आठ लाख से अन्यून स्वर्णमुद्राओं का दान दिया जाता है ।।
[५१६] इस प्रकार वर्ष में कुल तीन अरब, ८८ करोड ८० लाख स्वर्णमुद्राओं का दान भगवान् ने दिया ।
[५१७] कुण्डलधारीवैश्रमणदेव और महान्कृद्धिसम्पन्न लोकान्तिक देव पंद्रह कर्मभूमियों में (होने वाले) तीर्थंकर भगवान् को प्रतिबोधित करते हैं ।
[५१८] ब्रह्म (लोक) कल्प में आठ कृष्णराजियों के मध्य आठ प्रकार के लोकान्तिक विमान असंख्यात विस्तार वाले समझने चाहिए ।
[५१९] ये सब देव निकाय (आकर) भगवान् वीर-जिनेश्वर को बोधित (विज्ञप्त) करते हैं- हे अर्हन् देव ! सर्वजगत् के लिए हितकर धर्म-तीर्थ का प्रवर्तन करें ।
[५२०] तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर के अभिनिष्क्रमण के अभिप्राय को जानकर भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव एवं देवियाँ अपने-अपने रूप से, अपनेअपने वस्त्रों में और अपने-अपने चिह्नों से युक्त होकर तथा अपनी-अपनी समस्त ऋद्धि, द्युति,
और समस्त बल-समदाय सहित अपने-अपने यान-विमानों पर चढ़ते हैं । फिर सब अपने यान में बैठकर कर जो भी बादर पुद्गल हैं, उन्हें पृथक् करते हैं । बादर पुद्गलों को पृथक् करके सूक्ष्म पुद्गलों को चारों ओर से ग्रहण करके वे ऊँचे उड़ते हैं । अपनी उस उत्कृष्ट, शीध्र, चपल, त्वरित और दिव्य देव गति से नीचे उतरते क्रमशः तिर्यक्लोक में स्थित असंख्यात द्वीप-समुद्रों को लांघते हुए जहाँ जम्बूद्वीप है, वहाँ आते हैं । जहाँ उत्तर क्षत्रियकुण्डपुर सन्निवेश है, उसके निकट आ जाते हैं । उत्तर क्षत्रियकुण्डपुर सन्निवेश के ईशानकोण दिशा भाग में शीध्रता से उतर जाते हैं ।
देवों के इन्द्र देवराज शक्र ने शनैः शनैः अपने यान को वहाँ ठहराया। फिर वह धीरे धीरे विमान से उतरा । विमान से उतरते ही देवेन्द्र सीधा एक ओर एकान्त में चला गया । उसने एक महान् वैक्रिय सुमुद्घात करके इन्द्र ने अनेक मणि-स्वर्ण-रत्न आदि से जटितचित्रित, शुभ, सुन्दर, मनोहर कमनीय रूप वाले एक बहुत बड़े देवच्छंदक का विक्रिया द्वारा निर्माण किया । उस देवच्छंदक के ठीक मध्य-भाग में पादपीठ सहित एक विशाल सिंहासन की विक्रिया, की, जो नाना मणि-स्वर्ण-रत्न आदि की रचना से चित्र-विचित्र, शुभ, सुन्दर और रम्य रूपवाला था । फिर जहाँ श्रमण भगवान् महावीर थे, वहाँ वह आया । उसने भगवान् की तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा की, फिर वन्दन नमस्कार करके श्रमण भगवान् महावीर को लेकर वह देवच्छन्दक के पास आया । तत्पश्चात् भगवान् को धीरे-धीरे देवच्छन्दक में स्थित सिंहासन पर बिठाया और उनका मुख पूर्व दिशा की ओर रखा ।
यह सब करने के बाद इन्द्र ने भगवान् के शरीर पर शतपाक, सहस्त्रपाक तेलों से