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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
[५२७] उस शिबिका को पूर्वदिशा की ओर से सुर (वैमानिक देव) उठाकर ले चलते हैं, जबकि असुर दक्षिण दिशा की ओर से, गरुड़देव पश्चिम दिशा की ओर से और नागकुमार देव उत्तर दिशा की ओर से उठाकर ले चलते हैं ।
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[५२८] उस समय देवों के आगमन से आकाशमण्डल वैसा ही सुशोभित हो रहा था, जैसे खिले हुए पुष्पों से वनखण्ड, या शरत्काल में कमलों के समूह से पद्म सरोवर ।
[५२९] उस समय देवों के आगमन के गगनतल भी वैसा ही सुहावना लग रहा था, जैसे सरसों, कचनार या कनेर या चम्पकवन फूलों के झुण्ड से सुहावना प्रतीत होता है । [५३०] उस समय उत्तम ढोल, भेरी, झांझ, शंख आदि लाखों वाद्यों का स्वर - निनाद गगनतल और भूतल पर परम रमणीय प्रतीत हो रहा था ।
[५३१] वहीं पर देवगण बहुत से - शताधिक नृत्यों और नाट्यों के साथ अनेक तरह तत, वितत, घन और शुषिर, यों चार प्रकार के बाजे बजा रहे थे ।
[५३२] उस काल और उस समय में, जबकि हेमन्त ऋतु का प्रथम मास, प्रथम पक्ष अर्थात् मार्गशीष मास का कृष्णपक्ष की दशमी तिथि के सुव्रत दिवस के विजय मुहूर्त में, उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर, पूर्वगामिनी छाया होने पर, द्वितीय पौरुषी प्रहर के बीतने पर, निर्जल षष्ठभक्त - प्रत्याख्यान के साथ एकमात्र (देवदूष्य) वस्त्र को लेकर भगवान् महावीर चन्द्रप्रभा नाम की सहस्त्रवाहिनी शिबिका में विराजमान हुए थे; जो देवों, मनुष्यों और असुरों की परिषद् द्वारा ले जाई जा रही थी । अतः उक्त परिषद् के साथ वे क्षत्रियकुण्डपुर सन्निवेश के बीचोंबीच - मध्यभाग में से होते हुए जहाँ ज्ञातखण्ड नामक उद्यान था, उसके निकट पहुँचे । देव छोटे से हाथ- प्रमाण ऊँचे भूभाग पर धीरे-धीरे उस सहस्त्रवाहिनी चन्द्रप्रभा शिबिका को रख देते हैं । तब भगवान् उसमें से शनैः शनैः नीचे उतरते हैं; और पूर्वाभिमुख होकर सिंहासन पर अलंकारों को उतारते हैं । तत्काल ही वैश्रमणदेव घुटने टेककर श्रमण भगवान् महावीर के चरणों में झुकता है और भक्तिपूर्वक उनके उन आभरणालंकारों को हंसलक्षण सदृश श्वेत वस्त्र में ग्रहण करता है ।
पश्चात् भगवान् ने दाहिने हाथ से दाहिनी ओर के और बाएं हाथ से बाईं ओर के केशों का पंचमुष्टिक लोच किया । देवराज देवेन्द्र शक्र श्रमण भगवान् महावीर के समक्ष घुटने टेककर चरणों में झुकता है और उन केशों को हीरे के थाल में ग्रहण करता है । भगवान् ! आपकी अनुमति है, यों कहकर उन केशों को क्षीर समुद्र में प्रवाहित कर देता है ।
इधर भगवान् दाहिने हाथ से दाहिनी और के ओर बाएं हाथ से बाईं ओर के केशों का पंचमुष्टिक लोच पूर्ण करके सिद्धों को नमस्कार करते हैं; 'और आज से मेरे लिए सभी पापकर्म अकरणीय हैं', यों उच्चारण करके सामायिक चारित्र अंगीकार करते हैं । उस समय देवों और मनुष्यों - दोनों की परिषद् चित्रलिखित-सी निश्चेष्ट-स्थिर हो गई थी ।
[५३३] जिस समय भगवान् चारित्र ग्रहण कर रहे थे, उस समय शक्रेन्द्र के आदेश से शीघ्र ही देवों के दिव्य स्वर, वाद्य के निनाद और मनुष्यों के शब्द स्थगित कर दिये । [५३४] भगवान् चारित्र अंगीकार करके अहर्निश समस्त प्राणियों और भूतों के हित में संलग्न हो गए। सभी देवों ने यह सुना तो हर्ष से पुलकित हो उठे ।
[ ५३५] श्रमण भगवान् महावीर को क्षायोपशमिक सामायिकचारित्र ग्रहण करते ही