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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
इस प्रकार इन पंच भावनाओं से विशिष्ट तथा स्वीकृत मृषावाद - विरमणरूप, द्वितीय सत्यमहाव्रत का काया से सम्यक्स्पर्श करने, पालन करने, गृहीत महाव्रत को पार लगाने, कीर्तन करने एवं अन्त तक अवस्थित रहने पर भगवदाज्ञा के अनुरूप आराधक हो जाता है । भगवन् ! यह मृषावादविरमणरूप द्वितीय महाव्रत है ।
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[५३८] भगवन् ! इसके पश्चात् अब मैं तृतीय महाव्रत स्वीकार करता हूँ, इसके सन्दर्भ में मैं सब प्रकार से अदत्तादान का प्रत्याख्यान करता हूँ । वह इस प्रकार - वह ( ग्राह्य पदार्थ ) चाहे गाँव में हो, नगर में हो या अरण्य में हो, थोड़ा हो या बहुत, सूक्ष्म हो या स्थूल, सचेतन हो या अचेतन; उसे उसके स्वामी के बिना दिये न तो स्वयं ग्रहण करूँगा, न दूसरे से ग्रहण कराऊँगा और न ही अदत्त - ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करूँगा, यावज्जीवन तीन करणों से तथा मन-वचन-काया, से यह प्रतिज्ञा करता हूँ । साथ ही मैं पूर्वकृत अदत्तादानरूप पाप का प्रतिक्रमण करता हूँ आत्मनिन्दा करता हूँ, 'गर्हा' करता हूँ और अपनी आत्मा से अदत्तादान पाप का व्युत्सर्ग करता हूँ ।
उस तीसरे महाव्रत की ये पांच भावनाएँ हैं—
उस में प्रथम भावना इस प्रकार है- जो साधक पहले विचार करके परिमित अवग्रह की याचना करता है, वह निर्ग्रन्थ है, किन्तु बिना विचार किये परिमित अवग्रह की याचना करने वाला नहीं । केवली भगवान् कहते हैं- जो बिना विचार किये मितावग्रह कि याचना करता है, वह निर्ग्रन्थ अदत्त ग्रहण करता है । अतः तदनुरूप चिन्तन करके परिमित अवग्रह की याचना करने वाला साधु निर्ग्रन्थ कहलाता है, न कि बिना विचार किये मर्यादित अवग्रह की याचना करने वाला ।
इसके अनन्तर दूसरी भावना यह है - गुरुजनों की अनुज्ञा लेकर आहार- पानी आदि सेवन करने वाला निर्ग्रन्थ होता है, अनुज्ञा लिये बिना आहार -पानी आदि का उपभोग करने वाला नहीं । केवली भगवान् कहते हैं कि जो निर्ग्रन्थ गुरु आदि की अनुज्ञा प्राप्त किये बिना पान - भोजनादि का उपभोग करता है, वह अदत्तादान का सेवन करता है । इसलिए जो अनुज्ञा प्राप्त करके आहार- पानी आदि का उपभोग करता है, वह निर्ग्रन्थ कहलाता है, अनुज्ञा ग्रहण किये बिना आहार -पानी आदि का सेवन करने वाला नहीं ।
अब तृतीय भावना इस प्रकार है-निर्गन्थ साधु को क्षेत्र और काल के प्रमाणपूर्वक अवग्रह की याचना करनी चाहिए । केवली भगवान् कहते हैं- जो निर्ग्रन्थ इतने क्षेत्र और इतने काल की मर्यादापूर्वक अवग्रह की अनुज्ञा ग्रहण नहीं करता, वह अदत्त का ग्रहण करता है । अतः निर्ग्रन्थ साधु क्षेत्र काल की मर्यादा खोल कर अवग्रह की अनुज्ञा ग्रहण करने वाला होता है, अन्यथा नहीं ।
इसके अनन्तर चौथी भावना यह है-निर्ग्रन्थ अवग्रह की अनुज्ञा ग्रहण करने के पश्चात् बार-बार अवग्रह अनुज्ञा- ग्रहणशील होना चाहिए । क्योंकि केवली भगवान् कहते हैं - जो निर्ग्रन्थ अवग्रह की अनुज्ञा ग्रहण कर लेने पर बार-बार अवग्रह की अनुज्ञा नहीं लेता, वह अदत्तादान दोष का भागी होता है । अतः निर्ग्रन्थ को एक बार अवग्रह की अनुज्ञा ग्रहण कर लेने पर भी पुनः पुनः अवग्रहानुज्ञा ग्रहणशील होना चाहिए ।
इसके पश्चात् पांचवी भावना यह है- जो साधक साधर्मिकों से भी विचार करके