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आचार-२/३/१५/-/५३६
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देखे-भाले ही आहार-पानी सेवन करता है, वह निर्ग्रन्थ प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों को हनन करता है यावत् उन्हें पीड़ा पहुँचाता है । अतः जो देखभाल कर आहार-पानी का सेवन करता है, वही निर्ग्रन्थ है, बिना देखे-भाले आहार-पानी करने वाला नहीं ।
इस प्रकार पंचभावनाओं से विशिष्ट तथा प्राणातिपात विरमणरूप प्रथम महाव्रत का सम्यक् प्रकार काया से स्पर्श करने पर, पालन करने पर गृहीत महाव्रत को पार लगाने पर, कीर्तन करने पर उसमें अवस्थित रहने पर, भगवदाज्ञा के अनुरूप आराधन हो जाता है । हे भगवान् । यह प्राणातिपातविरमण रूप प्रथम महाव्रत है ।
[५३७] इसके पश्चात् भगवन् ! मैं द्वितीय महाव्रत स्वीकार करता हूँ । आज मैं इस प्रकार से मृषावाद और सदोष-वचन का सर्वथा प्रत्याख्यान करता हूँ। साधु क्रोध से, लोभ से, भय से या हास्य से न तो स्वयं मृषा बोले, न ही अन्य व्यक्ति से असत्य भाषण करो
और जो व्यक्ति असत्य बोलता है, उसका अनुमोदन भी न करे । इस प्रकार तीन करणों से तथा मन-वचन-काया, से मृषावाद का सर्वथा त्याग करे । इस प्रकार मृषावादविरमण रूप द्वितीय महाव्रत स्वीकार करके हे भगवन् ! मैं पूर्वकृत मृषावाद रूप पाप का प्रतिक्रमण करता हूँ, आलोचना करता हूँ, आत्मनिन्द करता हूँ, गर्दा करता हूँ, जो अपनी आत्मा से मृषावाद का सर्वथा व्युत्सर्ग करता हूँ ।
उस द्वितीय महाव्रत की ये पांच भावनाएँ हैं- उन पाँचों में से पहली भावना इस प्रकार है-चिन्तन करके बोलता है, वह निर्ग्रन्थ है, बिना चिन्तन किये बोलता है, वह निर्ग्रन्थ नहीं । केवली भगवान् कहते हैं- बिना विचारे बोलने वाले निर्ग्रन्थ को मिथ्याभाषण का दोष लगता है । अतः चिन्तन करके बोलने वाला साधक ही निर्ग्रन्थ कहला सकता है, बिना चिन्तन किये बोलने वाला नहीं ।
इसके पश्चात् दूसरी भावना इस प्रकार है-क्रोध का कटुफल जानेता है । वह निर्ग्रन्थ है । इसलिए साधु को क्रोधी नहीं होना चाहिए । केवली भगवान् कहते हैं- क्रोध आने पर क्रोधी व्यक्ति आवेशवश असत्य वचन का प्रयोग कर देता है । अतः जो साधक क्रोध का अनिष्ट स्वरूप जानता है, वही निर्ग्रन्थ कहला सकता है, क्रोधी नहीं ।
तदनन्तर तृतीय भावना यह है-जो साधक लोभ का दुष्परिणाम जानता है, वह निर्ग्रन्थ है; अतः साधु लोभग्रस्त न हो । केवली भगवान् का कथन है कि लोभ प्राप्त व्यक्ति लोभावेशवश असत्य बोल देता है । अतः जो साधक लोभ का अनिष्ट स्वरूप जानता है, वही निर्गन्थ है, लोभाविष्ट नहीं ।
इसके बाद चौथी भावना यह है जो साधक भय का दुष्फल जानता है, वह निर्गन्थ है । अतः साधक को भयभीत नहीं होना चाहिए । केवली भगवान् का कहना है-भय-प्राप्त भीरू व्यक्ति भयाविष्ट होकर असत्य बोल देता है । अतः जो साधक भय का यथार्थ अनिष्ट स्वरूप जानता है, वही निर्ग्रन्थ है, न कि भयभीत ।
इसके अनन्तर पाँचवी भावना यह है-जो साधक हास्य के अनिष्ट परिणाम को जानता है, वह निर्गन्थ है । अतएव निर्ग्रन्थ को हंसोड़ नहीं होना चाहिए । केवली भगवान् का कथन है-हास्यवश हंसी करनेवाला व्यक्ति असत्य भी बोल देता है । इसलिए जो मुनि हास्य का अनिष्ट स्वरूप जानता है, वह निर्ग्रन्थ है, न कि हंसी-मजाक करने वाला ।