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आचार-२/२/१४/-/५०८
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( अध्ययन-१४ अन्योन्यक्रिया-सप्तिका-९) [५०८] साधु या साध्वी की अन्योन्यक्रिया जो कि परस्पर में सम्बन्धित है, कर्मसंश्लेषजननी है, इसलिए साधु या साध्वी इसको मन से न चाहे न वचन एवं काया से करने के लिए प्रेरित करे । साधु या साध्वी परस्पर एक दूसरे के चरणों को पोंछकर एक बार या बार-बार अच्छी तरह साफ करे तो मन से भी इसे न चाहे, न वचन और काया से करने की प्रेरणा करे । इस अध्ययन का शेष वर्णन तेरहवें अध्ययन में के समान जानना चाहिए ।
यही उस साधु या साध्वी का समग्र आचार है; जिसके लिए वह समस्त प्रयोजनों, यावत् उसके पालन में प्रयत्नशील रहे | - ऐसा मैं कहता हूँ ।
चूलिका-२-का मुनिदीपरत्नसागर कृत् अनुवाद पूर्ण
| चूलिका-३
| अध्ययन-१५ भावना । [५०९] उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के पांच कल्याणक उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में हुए । भगवान् का उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में देवलोक से च्यवन हुआ, च्यव कर वे गर्भ में उत्पन्न हुए । उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में गर्भ से गर्भान्तर में संहरण किये गए । उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में भगवान् का जन्म हुआ । उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में ही मुण्डित होकर आगार त्याग कर अनगार-धर्म में प्रव्रजित हुए । उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में भगवान् को सम्पूर्ण, प्रतिपूर्ण, नियाघात, निरावरण, अनन्त और अनुत्तर प्रवर केवलज्ञान केवलदर्शन समुत्पन्न हुआ । स्वाति नक्षत्र में भगवान् परिनिर्वाण को प्राप्त हुए।
[५१०] श्रमण भगवान् महावीर ने इस अवसर्पिणी काल के सुषम-सुषम नामक आरक, सुषम आरक और सुषम-दुषम आरक के व्यतीत होने पर तथा दुषम-सुषम नामक आरक के अधिकांश व्यतीत हो जाने पर और जब केवल ७५ वर्ष साढ़े आठ माह शेष रह गए थे, तब; ग्रीष्म ऋतु के चौथे मास, आठवें पक्ष, आषाढ़ सुक्ला षष्ठी की रात्रि को; उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर महाविजयसिद्धार्थ पुष्पोत्तरवर पुण्डरीक, दिकस्वस्तिक, वर्द्धमान महाविमान से बीस सागरोपम की आयु पूर्ण करके देवायु, देवभव और देवस्थिति को समाप्त करके वहाँ से च्यवन किया । च्यवन करके इस जम्बूद्वीप में भारतवर्ष के दक्षिणार्द्ध, भारत के दक्षिण-ब्राह्मणकुण्डपुर सन्निवेस में कुडालगोत्रीय कृषभदत्त ब्राह्मण की जालंधर गोत्रीया देवानन्दा नाम की ब्राह्मणी की कुक्षि में सिंह की तरह गर्भ में अवतरित हुए।
श्रमण भगवान महावीर तीन ज्ञान से युक्त थे । वे यह जानते थे कि मैं स्वर्ग से च्यव कर मनुष्यलोक में जाऊँगा । मैं वहाँ से च्यव कर गर्भ में आया हूँ, परन्तु वे च्यवनसमय को नहीं जानते थे, क्योंकि वह काल अत्यन्त सूक्ष्म होता है ।
देवानन्दाब्राह्मणी के गर्भ में आने के बाद श्रमणभगवान्महावीर के हित और अनुकम्पा से प्रेरित होकर 'यह जीत आचार है', यह कहकर वर्षाकाल के तीसरे मास, पंचम पक्ष अर्थात् - आश्विन कृष्णा त्रयोदशी के दिन उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर, ८२ वीं रात्रिदिन के व्यतीत होने और ८३ वें दिन की रात को दक्षिण ब्राह्मणकुण्डपुर सन्निवेश