Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 127
________________ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद १२६ पिण्डैषणा में किए गए वर्णन के अनुसार जान लेना । [४९६] हे आयुष्मन् शिष्य ! मैंने उन भगवान् से इस प्रकार कहते हुए सुना है कि इस जिन प्रवचन में स्थविर भगवन्तों ने पांच प्रकार का अवग्रह बताया है, देवेन्द्र- अवग्रह, राजावग्रह, गृहपति - अवग्रह, सागारिक- अवग्रह और साधर्मिक अवग्रह । यही उस भिक्षु या भिक्षुणी का समग्र आचार है, जिसके लिए वह अपने सभी ज्ञानादि आचारों एवं समितियों सहित सदा प्रयत्नशील रहे । प्रथमाचूलिका का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण चूलिका - २ अध्ययन-८ (१) स्थानसप्तिका [४९७] साधु या साध्वी यदि किसी स्थान में ठहरना चाहे तो तो वह पहले ग्राम, नगर यावत् सन्निवेश में पहुँचे । वहाँ पहुँच कर वह जिस स्थान को जाने कि यह अंडों यावत् मकड़ी के जालों से युक्त है, तो उस प्रकार के स्थान को अप्रासुक एवं अनेषणीय जानकर मिलने पर भी ग्रहण न करे । इसी पकार यहाँ से उदकप्रसूत कंदादि तक का स्थानैषणा सम्बन्धी वर्णन शय्यैषणा में निरूपित वर्णन के समान जान लेना । इन पूर्वोक्त तथा वक्ष्यमाण कर्मोपादानरूप दोषस्थानों को छोड़कर साधु इन ( आगे कही जाने वाली ) चार प्रतिमाओं का आश्रय लेकर किसी स्थान में ठहरने की इच्छा करेप्रथम प्रतिमा है - मैं अपने कायोत्सर्ग के समय अचित्तस्थन में निवास करूँगा, अचित्त दीवार आदि का शरीर से सहारा लूँगा तथा हाथ-पैर आदि सिकोड़ने- फैलाने के लिए परिस्पन्दन आदि करूँगा, तथा वहीं थोड़ा-सा सविचार पैर आदि से विचरण करूँगा । दूसरी प्रतिमा है - मैं कायोत्सर्ग के समय अचित्त स्थान में रहूँगा और अचित्त दीवार आदि का शरीर से सहारा लूँगा तथा हाथ-पैर आदि सिकोड़ने फैलाने के लिए परिस्पन्दन आदि करूँगा, किन्तु पैर आदि से थोड़ा-सा भी विचरण नहीं करूँगा । तृतीय प्रतिमा है - मैं कायोत्सर्ग के समय अचित्त स्थान में रहूँगा, अचित्त दीवार आदि का शरीर से सहारा लूँगा, किन्तु हाथ-पैर आदि का संकोचन - प्रसारण एवं पैरों से मर्यादित भूमि में जरा-सा भी भ्रमण नहीं करूँगा । चौथी प्रतिमा है - मैं कायोत्सर्ग के समय अचित्तस्थान में स्थित रहूँगा । उस समय न तो शरीर से दीवार आदि का सहारा लूँगा, न हाथ-पैर आदि का संकोचन - प्रसारण करूँगा, और न ही पैरों से मर्यादित भूमि में जरा-सा भी भ्रमण करूँगा । मैं कायोत्सर्ग पूर्ण होने तक अपने शरीर के प्रति भी ममत्व का व्युत्सर्ग करता हूँ । केश, दाढ़ी, मूँछ, रोम और नख आदि के प्रति भी ममत्व विसर्जन करता हूँ और कायोत्सर्ग द्वारा सम्यक् प्रकार से काया का निरोध करके इस स्थान में स्थित रहूँगा । साधु इन चार प्रतिमाओं से किसी एक प्रतिमा को ग्रहण करके विचरण करे । परन्तु प्रतिमा ग्रहण न करने वाले अन्य मुनि की निंदा न करे, न अपनी उत्कृष्टता की डींग हांके । इस प्रकार की कोई भी बात न कहे ।

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