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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
गृहस्थ के घर में आहार के लिए प्रविष्ट भिक्षु या भिक्षुणी यदि यह जाने कि यह अशनादि चतुर्विध आहार—पृथ्वीकाय पर रखा हुआ है, तो इस प्रकार के आहार को अप्रासुक और अनेषणीय समझकर साधु-साध्वी ग्रहण न करे ।
वह भिक्षु या भिक्षुणी यह जाने कि - अशनादि आहार अप्काय (सचित्त जल आदि) पर अथवा अग्निकाय पर रखा हुआ है, तो ऐसे आहार को अप्रासुक तथा अनेषणीय जान कर ग्रहण न करे।
केवली भगवान् कहते हैं- यह कर्मों के उपादान का कारण है, क्योंकि असंयत गृहस्थ साधु के उद्देश्य से-अग्नि जलाकर, हवा देकर, विशेष प्रज्वलित करके या प्रज्वलित आग में से ईन्धन निकाल कर, आग पर रखे हुए बर्तन को उतार कर, आहार लाकर दे देगा, इसीलिए तीर्थंकर भगवान ने साधु-साध्वी के लिए पहले से बताया है, यही उनकी प्रतिज्ञा है, यही हेतु है यही कारण है और यही उपदेश है कि वे सचित्त—पृथ्वी, जल, अग्नि आदि पर प्रतिष्ठित आहार को अप्रासुक और अनेषणीय मानकर प्राप्त होने पर ग्रहण न करे ।
[३७३] गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रविष्ट साधु या साध्वी को यह ज्ञात हो जाए कि साधु को देने के लिए यह अत्यन्त उष्ण आहार असंयत गृहस्थ सूप से, पँखे से, ताड़पत्र, खजूर आदि के पत्ते, शाखा, शाखाखण्ड से, मोर के पंख से अथवा उससे बने हुए पंखे से, वस्त्र से, वस्त्र के पल्ले से, हाथ से या मुँह से, पंखे आदि से हवा करके ठंडा करके देनेवाला है । वह पहले विचार करे और उक्त गृहस्थ से कहे—आयुष्मन् गृहस्थ ! तुम इस अत्यन्त गर्म आहार को सूप, पँखे यावत् हवा करके ठंडा न करो । अगर तुम्हारी इच्छा इस आहार को देने की हो तो, ऐसे ही दे दो । इस पर भी वह गृहस्थ न माने और उस अत्युष्ण आहार को यावत् ठण्डा करके देने लगे तो उस आहार को अप्रासुक और अनेषणीय समझ कर प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे ।
[३७४] गृहस्थ के घर में आहार के लिए प्रविष्ट साधु या साध्वी यह जाने कि यह अशनादि चतुर्विध आहार वनस्पतिकाय पर रखा हुआ है तो उस प्रकार के वनस्पतिकाय प्रतिष्ठित आहार को अप्रासुक और अनेषणीय जानकर प्राप्त होने पर न ले ।
इसी प्रकार त्रसकाय से प्रतिष्ठित आहार हो तो उसे भी ग्रहण न करे ।
[३७५] गृहस्थ के घर में पानी के लिए प्रविष्ट साधु या साध्वी यदि पानी के इन प्रकारों को जाने-जैसे कि- आटे के हाथ लगा हुआ पानी, तिल धोया हुआ पानी, चावल धोया हुआ पानी, अथवा अन्य किसी वस्तु का इसी प्रकार का तत्काल धोया हुआ पानी हो, जिसका स्वाद चलित-(परिवर्तित) न हुआ हो, जिसका रस अतिक्रान्त न हुआ (बदला न) हो, जिसके वर्ण आदि का परिणमन न हुआ हो, जो शस्त्र-परिणत न हुआ हो, ऐसे पानी को अप्रासुक और अनेषणीय जानकर मिलने पर भी साधु-साध्वी ग्रहण न करे ।
इसके विपरीत यदि वह यह जाने के यह बहुत देर का चावल आदि का धोया हुआ धोवन है, इसका स्वाद बदल गया है, रस का भी अतिक्रमण हो गया है, वर्ण आदि भी परिणत हो गए हैं और शस्त्र-परिणत भी है तो उस पानक को प्रासुक और एषणीय जानकर प्राप्त होने पर साधु-साध्वी ग्रहण करे ।।
गृहस्थ के यहाँ पानी के लिए प्रविष्ट साधु साध्वी अगर जाने, कि तिलों का उदक;