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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
को देखकर उनकी याचना करे कि क्या तुम मुझे इन संस्तारकों में से किसी एक संस्तारक को दोगे ? इस प्रकार के निर्दोष एवं प्रासुक संस्तारक की स्वयं याचना करे, यदि दाता बिना याचना किए ही दे तो प्रासुक एवं एषणीय जानकर उसे ग्रहण करे ।
इसके अनन्तर तीसरी प्रतिमा यह है - यह साधु या साध्वी जिस उपाश्रय में रहना चाहता है, यदि किसी उपाश्रय में इक्कड यावत् पराल तक के संस्तारक हों तो गृहस्वामी की आज्ञा लेकर उस संस्तारक को प्राप्त करके वह साधना में संलग्न रहे । यदि संस्तारक न मिले तो वह उत्कटुक आसन, पद्मासन आदि आसनों में बैठकर रात्रि व्यतीत करे ।
[४३६] चौथी प्रतिमा यह है - वह साधु या साध्वी उपाश्रय में पहले से ही संस्तारक बिछा हुआ हो, जैसे कि वहाँ तृणशय्या, पत्थर की शिला या लकड़ी का तख्त, तो उस संस्तारक की गृहस्वामी से याचना करे, उसके प्राप्त होने पर वह उस पर शयन आदि क्रिया कर सकता है । यदि वहाँ कोई भी संस्तारक बिछा हआ न मिले तो वह उत्कटुक आसन तथा पद्मासन आदि आसनों से बैठकर रात्रि व्यतीत करे । यह चौथी प्रतिमा है ।
[४३७] इन चारों प्रतिमाओं में से किसी एक प्रतिमा को धारण करके विचरण करने वाला साधु, अन्य प्रतिमाधारी साधुओं की निन्दा या अवहेलना करता हुआ यों न कहे - ये सब साधु मिथ्या रूप से प्रतिमा धारण किये हुए हैं, मैं ही अकेला सम्यक् रूप से प्रतिमा स्वीकार किए हुए हूँ । ये जो साधु भगवान् इन चार प्रतिमाओं में से किसी एक को स्वीकार करके विचरण करते हैं, और मैं जिस प्रतिमा को स्वीकार करके विचरण करता हूँ; ये सब . जिनाज्ञा में उपस्थित हैं । इस प्रकार पारस्परिक समाधिपूर्वक विचरण करे ।
[४३८] वह भिक्षु या भिक्षुणी यदि संस्तारक वापस लौटाना चाहे, उस समय यदि उस संस्तारक को अण्डों यावत् मकड़ी के जालों से युक्त जाने तो इस प्रकार का संस्तारक (उस समय) वापस न लौटाए ।
[४३९] वह भिक्षु या भिक्षुणी यदि संस्तारक वापस सौंपना चाहे, उस समय उस संस्तारक को अण्डों यावत् मकड़ी के जालों से रहित जाने तो, उस प्रकार के संस्तारक को बार-बार प्रतिलेखन तथा प्रमार्जन करके, सूर्य की धूप देकर एवं यतनापूर्वक झाड़कर गृहस्थ को संयत्नपूर्वक वापस सौंपे ।।
[४४०] जो साधु या साध्वी स्थिरवास कर रहा हो, या उपाश्रय में रहा हुआ हो, अथवा ग्रामानुग्राम विहार करता हुआ आकर ठहरा हो, उस प्रज्ञावान, साधु को चाहिए कि वह पहले ही उसके परिपार्श्व में उच्चार-प्रस्त्रवण-विसर्जन भूमि को अच्छी तरह देख ले ।
केवली भगवान् ने कहा है यह अप्रतिलेखित उच्चार-प्रस्त्रवण-भूमि कर्मबन्ध का कारण है । कारण यह है कि वैसी भूमि में कोई भी साधु या साध्वी रात्रि में या विकाल में मल-मूत्रादि का परिठापन करता हुआ फिसल या गिर सकता है । उसके पैर फिसलने या गिरने पर हाथ, पैर, सिर या शरीर के किसी अवयव को गहरी चोट लग सकती है, अथवा वहाँ स्थित प्राणी, भूत, जीव या सत्त्व को चोट लग सकती है, ये दब सकते हैं, यहाँ तक कि मर सकते हैं ।
इसी कारण तीर्थंकरादि आप्त पुरुषों ने पहले से ही भिक्षुओं के लिए यह प्रतिज्ञा बताई है, यह हेतु, कारण और उपदेश दिया है कि साधु को उपाश्रय में ठहरने से पहले मल-मूत्रपरिष्ठापन करने हेतु भूमि की आवश्यक प्रतिलेखना कर लेनी चाहिए ।