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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
समझ लेना । विशेषता सिर्फ यही है कि वस्त्र के बदले यहाँ 'पात्र' शब्द कहना चाहिए ।
कदाचित् कोई गृहनायक साधु से इस प्रकार कहे- “आयुष्मन् श्रमण ! आप मुहूर्तपर्यन्त ठहरिए । जब तक हम अशन आदि चतुर्विध आहार जुटा लेंगे या तैयार कर लेंगे, तब हम आप को पानी और भोजन से भरकर पात्र देंगे, क्योंकि साधु को खाली पात्र देना अच्छा और उचित नहीं होता ।" इस पर साधु उस गृहस्थ से कह दे - “मेरे लिए आधाकर्मी आहार खाना या पीना कल्पनीय नहीं है । अतः तुम आहार की सामग्री मत जुटाओ, आहार तैयार न करो । यदि मुझे पात्र देना चाहते हो तो ऐसे खाली ही दे दो ।'
साधु के इस प्रकार कहने पर यदि कोई गृहस्थ अशनादि चतुर्विध आहार की सामग्री जुटाकर अथवा आहार तैयार करके पानी और भोजन भरकर साधु को वह पात्र देने लगे तो उस प्रकार के पात्र को अप्रासुक और अनेषणीय समझकर मिलने पर ग्रहण न करे ।
कदाचित् कोई गृहनायक पात्र को सुसंस्कृत आदि किये बिना ही लाकर साधु को देने लगे तो साधु विचारपूर्वक पहले ही उससे कहे- “मैं तुम्हारे इस पात्र को अन्दर-बाहर चारों
ओर से भलीभाँति प्रतिलेखन करूँगा, क्योंकि प्रतिलेखन किये बिना पात्रग्रहण करना केवली भगवान् ने कर्मबन्ध का कारण बताया है । सम्भव है उस पात्र में जीव जन्तु हों, बीज हों या हरी आदि हो । अतः भिक्षुओं के लिए तीर्थंकर आदि आप्तपुरुषों ने पहले से ही ऐसी प्रतिज्ञा का निर्देश किया है या ऐसा हेतु, कारण और उपदेश दिया है कि साधु को पात्र ग्रहण करने से पूर्व ही उस पात्र को अन्दर-बाहर चारों ओर से प्रतिलेखन कर लेना चाहिए ।
अण्डों यावत् मकड़ी के जालों से युक्त पात्र ग्रहण न करे... इत्यादि सारे आलापक वस्त्रैषणा के समान जान लेने चाहिए । विशेष यह कि यदि वह तेल, घी, नवनीत आदि स्निग्ध पदार्थ लगाकर या स्नानीय पदार्थों से रगड़कर पात्र को नया व सुन्दर बनाना चाहे, इत्यादि वर्णन 'अन्य उस प्रकार की स्थण्डिलभूमि का प्रतिलेखन-प्रमार्जन करके यतनापूर्वक पात्र को साफ करे यावत् धूप में सुखाए' तक वस्त्रैषणा समान समझना ।
___ यही (पात्रैषणा विवेक ही) वस्तुतः उस साधु या साध्वी का समग्र आचार है, जिसमें वह ज्ञान आदि सर्व अर्थों से युक्त होकर सदा प्रयत्नशील रहे । - ऐसा मैं कहता हूँ ।
| अध्ययन-६ उद्देशक-२ [४८७] गृहस्थ के घर में आहार-पानी के लिए प्रवेश करने से पूर्व ही साधु या साध्वी अपने पात्र को भलीभाँति देखे, उसमें कोई प्राणी हों तो उन्हें निकालकर एकान्त में छोड़ दे और धूल को पोंछकर झाड़ दे । तत्पश्चात् साधु अथवा साध्वी आहार-पानी के लिए उपाश्रय से बाहर निकले या गृहस्थ के घर में प्रवेश करे । केवली भगवान् कहते हैं-ऐसा करना कर्मबन्ध का कारण है, क्योंकि पात्र के अन्दर द्वीन्द्रिय आदि प्राणी, बीज या रज आदि रह सकते हैं, पात्रों का प्रतिलेखन – प्रमार्जन किये बिना उन जीवों की विराधना हो सकती है। इसीलिए तीर्थंकर आदि आप्तपुरुषों ने साधुओं के लिए पहले से ही इस प्रकार की प्रतिज्ञा, यह हेतु, कारण और उपदेश दिया है कि आहार-पानी के लिए जाने से पूर्व साधु पात्र का सम्यक निरीक्षण करके कोई प्राणी हो तो उसे निकाल कर एकान्त में छोड़ दे, रज आदि को पोंछकर झाड़ दे और तब यतनापूर्वक से निकले और गृहस्थ के घर में प्रवेश करे ।