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आचार-२/१/६/२/४८८
[४८८] साधु या साध्वी गृहस्थ के यहाँ आहार- पानी के लिए गये हों और गृहस्थ घर के भीतर से अपने पात्र में सचित्त जल लाकर साधु को देने लगे, तो साधु उस प्रकार के परहस्तगत एवं पर-पात्रगत शीतल जल को अप्रासुक और अनेषणीय जान कर अपने पात्र में ग्रहण न करे । कदाचित असावधानी से वह जल ले लिया हो तो शीघ्र दाता के जल पात्र में उड़ेल दे । यदि गृहस्थ उस पानी को वापस न ले तो किसी स्निग्ध भूमि में या अन्य किसी योग्य स्थान में उस जल का विधिपूर्वक परिष्ठापन कर दे । उस जल से स्निग्ध पात्रको एकान्त निर्दोष स्थान में रख दे ।
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वह साधु या साध्वी जल से आर्द्र और स्निग्ध पात्र को जब तक उसमें से बूँदें टपकती रहें, और वह गीला रहे, तब तक न तो पोंछे ओर न ही धूप में सुखाए । जब वह यह जान ले कि मेरा पात्र अब निर्गतजल और स्नेह - रहित हो गया है, तब वह उस प्रकार के पात्र को यतनापूर्वक पोंछ सकता है और धूप में सुखा सकता है ।
साधु या साध्वी गृहस्थ के यहाँ आहारादि लेने के लिये प्रवेश करना चाहे तो अपने पात्र साथ लेकर वहाँ आहारादि के लिए प्रवेश करे या उपाश्रय से निकले । इसी प्रकार स्वपात्र लेकर वस्ती से बाहर स्वाध्यायभूमि या शौचार्थ स्थण्डिलभूमि को जाए, अथवा ग्रामानुग्राम विहार करे । तीव्र वर्षा दूर-दूर तक हो रही हो यावत् तिरछे उड़ने वाले त्रसप्राणी एकत्रित हो कर गिर रहे हों, इत्यादि परिस्थितियों में वस्त्रैषणा के निषेधादेश समान समझना । विशेष इतना ही है कि वहाँ सभी वस्त्रों को साथ में लेकर जाने का निषेध है, जबकि यहाँ अपने सब पात्र लेकर जाने का निषेध है ।
यही साधु साध्वी का समग्र आचार है, जिसके परिपालन के लिए प्रत्येक साधु-साध्वी को ज्ञानादि सभी अर्थों में प्रयत्नशील रहना चाहिए । ऐसा मैं कहता हूँ ।
अध्ययन - ७ अवग्रहप्रतिमा
उद्देशक- १
[४८९] मुनिदीक्षा लेते समय साधु प्रतिज्ञा करता है – “अब मैं श्रमण बना जाऊँगा । अनगार, अंकिचन, अपुत्र, अपशु, एवं परदत्तभोजी होकर मैं अब कोई भी हिंसादि पापकर्म नहीं करूँगा । इस प्रकार संयम पालन से लिए उत्थित होकर ( कहता है - ) 'भंते ! मैं आज समस्त प्रकार के अदत्तादान का प्रत्याख्यान करता हूँ ।'
वह साधु ग्राम यावत् राजधानी में प्रविष्ट होकर स्वयं बिना दिये हुए पदार्थ को ग्रहण न करे, न दूसरों से ग्रहण कराए और न अदत्त ग्रहण करने वाले का अनुमोदन -समर्थन करे । जिन साधुओं के साथ या जिनके पास वह प्रव्रजित हुआ है, या विचरण कर रहा है या रह रहा है, उनके भी छत्रक, दंड, पात्रक यावत् चर्मच्छेदनक आदि उपकरणों की पहले उनसे अवग्रह- अनुज्ञा लिये बिना तथा प्रतिलेखन - प्रमार्जन किये बिना एक या अनेक बार ग्रहण न करे । अपितु उनसे पहले अवग्रह- अनुज्ञा लेकर, तत्पश्चात् उसका प्रतिलेखन-प्रमार्जन करके फिर संयमपूर्वक उस वस्तु को एक या अनेक बार ग्रहण करे ।
[४९०] साधु पथिकशालाओं, आरामगृहों, गृहस्थ के घरों और परिव्राजकों के आवासों में जाकर पहले साधुओं के आवास योग्य क्षेत्र भलीभाँति देख-सोचकर अवग्रह की याचना