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आचार-२/१/२/२/४२०
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हुआ है । जो पूज्य निर्ग्रन्थ श्रमण उस प्रकार के लोहकारशाला यावत् भूमिगृह आदि वासस्थानों में आकर रहते हैं, अन्यान्य प्रशस्त उपहाररूप पदार्थों का उपयोग करते हैं वे एकपक्ष (भाव से साधुरूप) कर्म का सेवन करते हैं । हे आयुष्मन् ! यह शय्या अल्पसावधक्रिया रूप होती है । यह (शय्यैषणाविवेक) ही उस भिक्षु या भिक्षुणी के लिए समग्रता है ।
| अध्ययन-२ उद्देशक-३ | [४२१] वह प्रासुक, उंछ और एषणीय उपाश्रय सुलभ नहीं है । और न ही इन सावद्यकर्मों के कारण उपाश्रय शुद्ध मिलता है, जैसे कि कहीं साधु के निमित्त उपाश्रय का छप्पर छाने से या छत डालने से, कहीं उसे लीपने-पोतने से, कहीं संस्तारकभूमि सम करने से, कहीं उसे बन्द करने के लिए द्वार लगाने से, कहीं शय्यातर गृहस्थ द्वारा साधु के लिए आहार बनाकर देने से एषणादोष लगाने के कारण |
कई साधु विहार चर्या-परायण हैं, कई कायोत्सर्ग करने वाले हैं, कई स्वाध्यायरत हैं, कई साधु शय्या संस्तारक एवं पिण्डपात की गवेषणा में रत रहते हैं । इस प्रकार संयम या मोक्ष का पथ स्वीकार किये हुए कितने ही सरल एवं निष्कपट साधु माया न करते हुए उपाश्रय के यथावस्थित गुण-दोष बतला देते हैं ।
कई गृहस्थ वे पहले से साधु को दान देने के लिए उपाश्रय बनवा कर रख लेते हैं, फिर छलपूर्वक कहते हैं -- “यह मकान हमने चरक आदि परिव्राजकों के लिए रख छोड़ा है, या यह मकान, हमने पहले से अपने लिए बना कर रख छोड़ा है, अथवा पहले से यह मकान भाई-भतीजों को देने के लिए रखा है, दूसरों ने भी पहले इस मकान का उपयोग कर लिया है, नापसन्द होने के कारण बहुत पहले से हमने इस मकान को खाली छोड़ रखा है । पूर्णतया निर्दोष होने के कारण आप इस मकान का उपयोग कर सकते हैं ।" विचक्षण साधु इस प्रकार के छल को सम्यकतया जानकर उस उपाश्रय में न ठहरे ।
प्रश्न "गृहस्थों के पूछने पर जो साधु इस प्रकार उपाश्रय के गुण-दोषों को सम्यक् प्रकार से बतला देता है, क्या वह सम्यक् है ।" “हाँ, वह सम्यक् है ।'
४२२] वह साधु या साध्वी यदि ऐसे उपाश्रय को जाने, जो छोटा है, या छोटे द्वारों वाला है, तथा नीचा है, या नित्य जिसके द्वार बंध रहते हैं, तथा चरक आदि पख्रिाजकों से भरा हुआ है । इस प्रकार के उपाश्रय में वह रात्रि में या विकाल में भीतर से बाहर निकलता हुआ या बाहर से भीतर प्रवेश करता हुआ पहले हाथ से टटोल ले, फिर पैर से संयम पूर्वक निकले या प्रवेश करे । केवली भगवान् कहते हैं (अन्यथा) यह कर्मबन्ध का कारण है, क्योंकि वहाँ पर शाक्य आदि श्रमणों के या ब्राह्मणों के जो छत्र, पात्र, दंड, लाठी, ऋषिआसन, नालिका, वस्त्र, चिलिमिली मृगचर्म, चर्मकोश, या चर्म-छेदनक हैं, वे अच्छी तरह से बंधे हए नहीं हैं, अस्त-व्यस्त रखे हए हैं, अस्थिर हैं, कुछ अधिक चंचल हैं । रात्रि में या विकाल में अन्दर से बाहर या बाहर से अन्दर (अयतना से) निकलता-जाता हुआ साधु यदि फिसल पड़े या गिर पड़े (तो उनके उक्त उपकरण टूट जाएँगे) अथवा उस साधु के फिसलने या गिर पड़ने से उसके हाथ, पैर, सिर या अन्य इन्द्रियों, के चोट लग सकती है या वे टूट सकते हैं, अथवा प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों को आघात लगेगा, वे दब जाएँगे यावत् वे