________________
आचार-२/१/१/११/३९४
८७
लिए पथ्य नहीं है, यह रूक्ष है, तीखा है, कड़वा है, कसैला है, खट्टा है, अधिक मीठा है, अतः रोग बढ़ाने वाला है । इससे आप को कुछ भी लाभ नहीं होगा ।' इस प्रकार कपटाचरण करने वाला भिक्षु मातृस्थान का स्पर्श करता है । भिक्षु को ऐसा कभी नहीं करना चाहिए । किन्तु जैसा भी आहार हो, उसे वैसा ही दिखलाए- रोगी को स्वास्थ्य लाभ हो, वैसा पथ्य आहार देकर उसकी सेवा करे ।
३९५] यदि समनोज्ञ स्थिरवासी साधु अथवा ग्रामानुग्राम विचरण करने वाले साधुओं को मनोज्ञ भोजन प्राप्त होने पर यों कहें कि 'जो भिक्षु रोगी है, उसके लिए यह मनोज्ञ आहार ले जाओ. अगर वह रोगी भिक्ष इसे न खाए तो यह आहार वापस हमारे पास ले आना, क्योंकि हमारे यहाँ भी रोगी साधु है । इस पर आहार लेने वाला वह साधु उनसे कहे कि यदि मुझे आने में कोई विध्न उपस्थित न हुआ तो यह आहार वापस ले आऊँगा ।' उसे उन पूर्वोक्त कर्मों के आयतनों का सम्यक् परित्याग करके (यथातथ्य व्यवहार करना चाहिए ।)
[३९६] अब संयमशील साधु को सात पिण्डैपणाएं और सात पानैषणाएं जान लेनी चाहिए ।
(१) पहली पिण्डैषणा - असंसृष्ट हाथ और असंसृष्ट पात्र । हाथ और बर्तन (सचित्त) वस्तु से असंसृष्ट हों तो उनसे अशनादि आहार की स्वयं याचना करे अथवा गृहस्थ दे तो उसे प्रासुक जानकर ग्रहण कर ले । यह पहली पिण्डैषणा है ।
(२) दूसरी पिण्डैषणा है -- संसृष्ट हाथ और संसृष्ट पात्र । यदि दाता का हाथ और बर्तन (अचित्त वस्तु से) लिप्त है तो उनसे वह अशनादि आहार की स्वयं याचना करे या वह गृहस्थ दे तो उसे प्रासुक जानकर ग्रहण कर ले । यह दूसरी पिण्डैषणा है ।
(३) तीसरी पिण्डैषणा है - इस क्षेत्र में पूर्व, आदि चारों दिशाओं में कई श्रद्धालु व्यक्ति रहते हैं, जैसे कि वे गृहपति, यावत् नौकरानियां हैं । उनके यहाँ अनेकविध बर्तनों में पहले से भोजन रखा हुआ होता है, जैसे कि थाल में, तपेली या बटलोई में, सरक में, परक में, वरक में । फिर साधु यह जाने कि गृहस्थ का हाथ तो (देय वस्तु से) लिप्त नहीं है, बर्तन लिप्त है, अथवा हाथ लिप्त है, बर्तन अलिप्त है, तब वह पात्रधारी या. पाणिपात्र साधु पहले ही उसे देखकर कहे तुम मुझे असंसृष्ट हाथ में संसृष्ट बर्तन से अथवा संसृष्ट हाथ से असंसृष्ट बर्तन से, हमारे पात्र में या हाथ पर वस्तु लाकर दो । उस प्रकार के भोजन को या तो वह साधु स्वयं भाँग ले, या फिर बिना माँगे ही गृहस्थ लाकर दे तो उसे प्रासुक एवं एषणीय समझकर मिलने पर ले ले । यह तीसरी पिण्डैषणा है ।
(४) चौथी पिण्डैषणा है - भिक्षु यह जाने कि यहाँ कटकर तुष अलग किए हुए चावल आदि अन्न है, यावत् भुने शालि आदि चावल हैं, जिनके ग्रहण करने पर पश्चात्-कर्म की सम्भावना नहीं है और न ही तुष आदि गिराने पड़ते हैं, इस प्रकार के धान्य यावत् भुने शालि आदि चावल या तो साधु स्वय मांग ले; या फिर गृहस्थ बिना मांगे ही उसे दे तो प्रासुक एवं एषणीय समझकर प्राप्त होने पर ले ले । यह चौथी पिण्डैषणा है ।।
(५) पांचवी पिण्डैषणा है - '...साधु यह जाने कि गृहस्थ के यहाँ अपने खाने के लिए किसी बर्तन में या भोजन रखा हुआ है, जैसे कि सकोरे में, कांसे के बर्तन में, या मिट्टी के किसी बर्तन में ! फिर यह भी जान जाए कि उसके हाथ और पात्र जो सचित्त जल से