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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
किन्तु पहले से ही गीले हैं; उस प्रकार के सचित्त जल से गीले हाथ, पात्र, कुड़छी आदि से लाकर दिया गया आहार भी अप्रासुक-अनेषणीय जानकर प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे । यदि यह जाने कि हाथ आदि पहले से गीले तो नहीं हैं, किन्तु सस्निग्ध हैं, तो उस प्रकार लाकर दिया गया आहार... भी ग्रहण न करे ।
यदि यह जाने कि हाथ आदि जल से आर्द्र या सस्निग्ध तो नहीं हैं, किन्तु क्रमशः सचित्त मिट्टी, क्षार, हड़ताल, हिंगलू, मेनसिल, अंजन, लवण, गेरू, पीली मिट्टी, खड़िया मिट्टी, सौराष्ट्रिका, बिना छाना आटा, आटे का चोकर, पीलुपर्णिका के गीले पत्तों का चूर्ण आदि में से किसी से भी हाथ आदि संसृष्ट हैं तो उस प्रकार के हाथ आदि से लाकर दिया गया आहार... भी ग्रहण न करे । यदि वह यह जाने कि दाता के हाथ आदि सचित्त जल से आर्द्र, सस्निग्ध या सचित्त मिट्टी आदि से असंसृष्ट तो नहीं हैं, किन्तु जो पदार्थ देना है, उसी से हाथ आदि संसृष्ट हैं तो ऐसे हाथों या बर्तन आदि से दिया गया अशनादि आहार प्रासुक एवं एषणीय मानकर प्राप्त होने पर ग्रहण कर सकता है ।
(अथवा) यदि वह भिक्षु यह जाने कि दाता के हाथ आदि सचित्त जल, मिट्टी आदि से संसृष्ट नहीं हैं, किन्तु जो पदार्थ देना है, उसी से संसृष्ट हैं तो ऐसे हाथों या बर्तन आदि से दिया गया आहार प्रासुक एवं एषणीय समझकर प्राप्त होने पर ग्रहण करे ।
[३६८] गृहस्थ के घर में आहार के लिए प्रविष्ट साधु-साध्वी को यह ज्ञात हो जाए कि शालि-धान, जौ, गेहूँ आदि में सचित्तरज बहुत हैं, गेहूँ आदि अग्नि में भूजे हुए हैं, किन्तु वे अर्धपक्क हैं, गेहूँ आदि के आटे में तथा कुटे हुए धान में भी अखण्ड दाने हैं, कण-सहित चावल के लम्बे दाने सिर्फ एक बार भुने हुए या कुटे हुए हैं, अतः असंयमी गृहस्थ भिक्षु के उद्देश्य से सचित्त शिला पर, सचित्त मिट्टी के ढेले पर, घुन लगे हुए लक्कड़ पर, या दीमक लगे हुए जीवाधिष्ठित पदार्थ पर, अण्डे सहित, प्राण-सहित या मकड़ी आदि के जालों सहित शिला पर उन्हें कूट चुका है, कूट रहा है या कूटेगा; उसके पश्चात् वह उन– अनाज के दानों को लेकर उपन चुका है, उपन रहा है या उपनेगा; इस प्रकार के चावल आदि अन्नों को अप्रासुक और अनेषणीय जानकर साधु ग्रहण न करे ।
[३६९] गृहस्थ के घर में आहरार्थ प्रविष्ट साधु-साध्वी यदि यह जाने कि असंयमी गृहस्थ किसी विशिष्ट खान में उत्पन्न सचित्त नमक या समुद्र के किनारे खार और पानी के संयोग से उत्पन्न उद्भिज्ज लवण के सचित्त शिला, सचित्त मिट्टी के ढेले पर, घुन लगे लक्कड़ पर या जीवाधिष्ठित पदार्थ पर, अण्डे, प्राण, हरियाली, बीज या मकड़ी के जाले सहित शिला पर टुकड़े कर चुका है, कर रहा है या करेगा, या पीस चुका है, पीस रहा है या पीसेगा तो साधु ऐसे सचित्त या सामुद्रिक लवण को अप्रासुक-अनेषणीय समझ कर ग्रहण न करे।
[३७०] गृहस्थ के घर आहार के लिए प्रविष्ट साधु-साध्वी यदि यह जान जाए कि अशनादि आहार अग्नि पर रखा हुआ है, तो उस आहार को अप्रासुक-अनेषणीय जानकर प्राप्त होने पर ग्रहण न करे । केवली भगवान् कहते हैं यह कर्मों के आने का मार्ग है; क्योंकि असंयमी गृहस्थ साधु के उद्देश्य से अग्नि पर रखे हुए बर्तन में से आहार को निकालता हुआ, उफनते हुए दूध आदि को जल आदि के छींटे देकर शान्त करता हुआ, अथवा उसे हाथ आदि से एक बार या बार-बार हिलाता हुआ, आग पर से उतारता हुआ या बर्तन को टेढ़ा