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आचार- २/१/१/५/३५९
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जाने कि अग्रपिण्ड निकाला जाता हुआ, रखा जाता दिखायी दे रहा है, ( कहीं) अग्रपिण्ड ले जाया जाता, बाँटा जाता, सेवन किया जाता दिख रहा है, कहीं वह फेंका या डाला जाता दृष्टिगोचर हो रहा है तथा पहले, अन्य श्रमण-ब्राह्मणादि भोजन कर गए हैं एवं कुछ भिक्षाचर पहले इसे लेकर चले गए हैं, अथवा पहले यहाँ दूसरे श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, दरिद्र, याचक आदि जल्दी-जल्दी आ रहे हैं, (यह देखकर) कोई साधु यह विचार करे कि मैं भी जल्दी-जल्दी (अग्रपिण्ड लेने) पहुँचूँ, तो ( ऐसा करने वाला साधु) माया - स्थान का सेवन करता है । वह ऐसा न करे ।
[३६०] वह भिक्षु या भिक्षुणी गृहस्थ के यहाँ आहारार्थ जाते समय रास्ते के बीच में ऊँचे भू-भाग या खेत की क्यारियाँ हों या खाइयाँ हों, अथवा बांस की टाटी हो, या कोट हो, बाहर के द्वार (बंद) हों, आगल हों, अर्गला पाशक हों तो उन्हें जानकर दूसरा मार्ग हो तो संयमी साधु उसी मार्ग से जाए, उस सीधे मार्ग से न जाए; क्योंकि केवली भगवान् कहते हैं- -यह कर्मबन्ध का मार्ग है ।
उस विषय - मार्ग से जाते हुए भिक्षु फिसल जाएगा या डिग जाएगा, अथवा गिर जाएगा । फिसलने, डिगने या गिरने पर उस भिक्षु का शरीर मल, मूत्र, कफ, लींट, वमन, पित्त, मवाद, शुक्र और रक्त ने लिपट सकता है । अगर कभी ऐसा हो जाए तो वह भिक्षु • मल-मूत्रादि से उपलिप्त शरीर को सचित पृथ्वी से, सचित्त चिकनी मिट्टी से, सचित्त शिलाओं से, सचित्त पत्थर या ढेले से, या धुन लगे हुए काष्ठ से, जीवयुक्त काष्ठ से एवं अण्डे या प्राणी या जालों आदि से युक्त काष्ठ आदि से अपने शरीर को न एक बार साफ करे और न अनेक बार घिस कर साफ करे । न एक बार रगड़े या घिसे और न बार-बार घिसे, उबटन आदि की तरह मले नहीं, न ही उबटन की भाँति लगाए । एक बार या अनेक बार धूप में सुखाए नहीं । वह भिक्षु पहले सचित्त-रज आदि से रहित तृण, पत्ता, काष्ठ, कंकर आदि की याचना करे । याचना से प्राप्त करके एकान्त स्थान में जाए । वहाँ अग्नि आदि के संयोग से जलकर जो भूमि अचित्त हो गयी है, उस भूमि की या अन्यत्र उसी प्रकार की भूमि का प्रतिलेखन तथा प्रमार्जन करके यत्नाचारपूर्वक संयमी साधु स्वयमेव अपने शरीर को पोंछे, मले, घिसे यावत् धूप में एक बार व बार- बार सुखाए और शुद्ध करे ।
[३६१] वह साधु या साध्वी जिस मार्ग से भिक्षा के लिए जा रहे हों, यदि वे यह जाने कि मार्ग में सामने मदोन्मत्त सांड है, या भैंसा खड़ा है, इसी प्रकार दुष्ट मनुष्य, घोड़ा, हाथी, सिंह, बाघ, भेड़िया, चीता, रीछ, व्याघ्र, अष्टापद, सियार बिल्ला, कुत्ता, महाशूकर, लोमड़ी, चित्ता, चिल्लडक, और साँप आदि मार्ग में खड़े या बैठे हैं, ऐसी स्थिति में दूसरा मार्ग हो तो उस मार्ग से जाए, किन्तु उस सीधे मार्ग से न जाए ।
साधु-साध्वी भिक्षा के लिए जा रहे हों, मार्ग में बीच में यदि गड्डा हो, खूँटा हो या ढूँठ पड़ा हो, काँटे हों, उतराई की भूमि हो, फटी हुयी काली जमीन हो, ऊंची-नीची भूमि हो, या कीचड़ अथवा दलदल पड़ता हो, ( ऐसी स्थिति में) दूसरा मार्ग हो तो संयमी साधु स्वयं उसी मार्ग से जाए, किन्तु जो सीधा मार्ग है, उससे न जाए।
[३६२] साधु या साध्वी गृहस्थ के घर का द्वार भाग कांटों की शाखा से ढँका हुआ देखकर जिनका वह घर, उनसे पहले अवग्रह मांगे बिना, उसे अपनी आँखों से देखे बिना और