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आचार- २/१/१/१/३३८
साथ न लौटे, न प्रवेश करे ।
एक गाँव से दूसरे गाँव जाते हुए भिक्षु या भिक्षुणी अन्यतीर्थिक या गृहस्थ के साथ तथा उत्तम साधु पार्श्वस्थ आदि साधु के साथ ग्रामानुग्राम विहार न करे ।
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[३३९] गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रविष्ट भिक्षु या भिक्षुणी अन्यतीर्थिक या परपिण्डोपजीवी याचक को तथैव उत्तम साधु पार्श्वस्थादि शिथिलाचारी साधु को अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य तो स्वयं दे और न किसी से दिलाए ।
[३४०] गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रविष्ट भिक्षु या भिक्षुणी जब यह जाने कि किसी भद्र गृहस्थ ने अकिंचन निर्ग्रन्थ के लिए एक साधर्मिक साधु के उद्देश्य से प्राण, भूत जीव और सत्त्वों का समारम्भ करके आहार बनाया है, साधु के निमित्त से आहार मोल लिया, उधार लिया है, किसी से जबरन छीनकर लाया है, उसके स्वामी की अनुमति के बिना लिया हुआ है तथा सामने लाया हुआ आहार दे रहा है, तो उस प्रकार का, अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य रूप आहार दाता से भिन्न पुरुष ने बनाया हो अथवा दाता ने बनवाया हो, घर से बाहर निकाला गया हो, या न निकाला गया हो, उस दाता ने स्वीकार किया हो या न किया हो, उसी दाता ने उस आहार में से बहुत-सा खाया हो या न खाया हो; अथवा थोड़ा-सा सेवन किया हो, या न किया हो; इस प्रकार के आहार को अप्रासुक और अनेषणिक समझकर प्राप्त होने पर भी वह ग्रहण न करे ।
इसी प्रकार बहुत से साधर्मिक साधुओं के उद्देश्य से, एक साधर्मिणी साध्वी के उद्देश्य से तथा बहुत सी साधर्मिणी साध्वियों के उद्देश्य से बनाये हुए... आहार को.... न करें; यों क्रमशः चार आलापक इसी भाँति कहने चाहिए ।
ग्रहण
[३४१] वह भिक्षु या भिक्षुणी यावत् गृहस्थ के घर प्रविष्ट होने पर जाने कि यह नाद आहार बहुत से श्रमणों, माहनों, अतिथियों, कृपणों, याचकों को गिन-गिनकर उनके उद्देश्य से बनाया हुआ है । वह आसेवन किया गया हो या न किया गया हो, उस आहार को अप्रासुक अनेषणीय समझ कर मिलने पर ग्रहण न करे ।
[३४२] वह भिक्षु या भिक्षुणी यावत् गृहस्थ के घर प्रवष्टि होने पर जाने कि यह चतुर्विध आहार बहुत-से श्रमणों, माहनों, अतिथियों, दरिद्रों और याचकों के उद्देश्य से प्राणादि आदि जीवों का समारम्भ करके यावत् लाकर दे रहा है, उस प्रकार के आहार को जो स्वयं दाता द्वारा कृत हो, बाहर निकाला हुआ न हो, दाता द्वारा अधिकृत न हो, दाता द्वारा उपभुक्त न हो, अनासेवित हो, उसे अप्रासुक और अनेषणीय समझकर मिलने पर भी ग्रहण न करे । यदि वह इस प्रकार जाने कि वह आहार दूसरे पुरुष द्वारा कृत है, घर से बाहर निकाला गया है, अपने द्वारा अधिकृत है, दाता द्वारा उपभुक्त तथा आसेवित है तो ऐसे आहार को प्रासुक और एषणीय समझ कर मिलने पर वह ग्रहण कर ले ।
[३४३] गृहस्थ के घर में आहार - प्राप्ति की अपेक्षा से प्रवेश करने के इच्छुक साधु या साध्वी ऐसे कुलों को जान लें कि इन कुलों में नित्यपिण्ड दिया जाता है, नित्य अग्रपिण्ड दिया जाता हैं, प्रतिदिन भात दिया जाता है, प्रतिदिन उपार्द्ध भाग दिया जाता है; इस प्रकार के कुल, जो नित्य दान देते हैं, जिनमें प्रतिदिन भिक्षाचरों का प्रवेश होता है, ऐसे कुलों में आहारपानी के लिए साधु-साध्वी प्रवेश एवं निर्गमन न करें ।