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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
[३१४] उन अनार्यों ने पहले एक बार ध्यानस्थ खड़े भगवान् के शरीर को पकड़कर मांस काट लिया था । उन्हें परीपहों से पीड़ित करते थे, कभी-कभी उन पर धूल फेंकते थे ।। [ ३१५] कुछ दुष्ट लोग ध्यानस्थ भगवान् को ऊँचा उठाकर नीचे गिरा देते थे, कुछ लोग आसन से दूर धकेल देते थे, किन्तु भगवान् शरीर का व्युत्सर्ग किए हुए प्रणबद्ध, कष्टसहिष्णु प्रतिज्ञा से युक्त थे । अतएव वे इन परीषहों से विचलित नहीं होते थे ।।
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[३१६] जैसे कवच पहना हुआ योद्धा युद्ध के मोर्चे पर शस्त्रों से विद्ध होने पर भी विचलित नहीं होता, वैसे ही संवर का कवच पहने हुए भगवान् महावीर लाढ़ादि देश में परीषहसेना से पीड़ित होने पर भी कठोरतम कष्टों का सामना करते हुए - मेरुपर्वत की तरह ध्यान में निश्चल रहकर मोक्षपथ में पराक्रम करते थे ।
[३१७] (स्थान और आसन के सम्बन्ध में) प्रतिज्ञा से मुक्त मतिमान, महामाहन भगवान् महावीर ने इस विधि का अनेक बार आचरण किया; उनके द्वारा आचरित एवं उपदिष्ट विधि का अन्य साधक भी इसी प्रकार आचरण करते हैं । ऐसा मैं कहता हूँ ।। अध्ययन- ९ - उद्देशक - ४
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[३१८] भगवान् रोगों से आक्रान्त न होने पर भी अवमौदर्य तप करते थे । वे रोग से स्पृष्ट हों या अस्पृष्ट, चिकित्सा में रुचि नहीं रखते थे ।।
[३१९] वे शरीर को आत्मा से अन्य जानकर विरेचन, वमन, तैलमर्दन, स्नान और मर्दन आदि परिकर्म नहीं करते थे, तथा दन्तप्रक्षालन भी नहीं करते थे ।।
[३२०] महामाहन भगवान् विरत होकर विचरण करते थे । वे बहुत बुरा नहीं बोलते थे । कभी-कभी भगवान् शिशिर ऋतु में स्थिर होकर ध्यान करते थे ।।
[३२१] भगवान् ग्रीष्म ऋतु में आतापना लेते थे । उकडू आसन से सूर्य के ताप के सामने मुख करके बैठते थे । और वे प्रायः रूखे आहार को दो कोद्रव व बेर आदि का चूर्ण, तथा उड़द आदि से शरीर - निर्वाह करते थे ।।
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[३२२ ] भगवान् ने इन तीनों का सेवन करके आठ मास तक जीवन यापन किया । कभी-कभी भगवान् ने अर्ध मास या मास भर तक पानी नहीं पिया ||
[३२३] उन्होंने कभी-कभी दो महीने से अधिक तथा छह महीने तक भी पानी नहीं पिया । वे रातभर जागृत रहते, किन्तु मन में नींद लेने का संकल्प नहीं होता था । कभीकभी वे बासी भोजन भी करते थे ।।
[३२४] वे कभी बेले, कभी तेले, कभी चौले कभी पंचौले के अनन्तर भोजन करते थे । भोजन प्रति प्रतिज्ञारहित होकर समाधि का प्रेक्षण करते थे ।
[३२५] वे भगवान् महावीर ( दोषों को) जानकर स्वयं पाप नहीं करते थे, दूसरों से भी पाप नहीं करवाते थे और न पाप करने वालों का अनुमोदन करते थे ।
[३२६] ग्राम या नगर में प्रवेश करके दूसरे के लिए बने हुए भोजन की एषणा करते थे । सुविशुद्ध आहार ग्रहण करके भगवान् आयतयोग से उसका सेवन करते थे ।।
[३२७] भिक्षाटन के समय रास्ते में क्षुधा से पीड़ित कौओं तथा पानी पीने के लिए आतुर अन्य प्राणियों को लगातार बैठे हुए देखकर—