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आचार- १/९/२/३००
हिमपात होने पर कुछ अनगार भी निर्वातस्थान ढूँढते थे ।।
[ ३०१] हिमजन्य शीत- स्पर्श अत्यन्त दुःखदायी है, यह सोचकर कई साधु संकल्प करते थे कि चादरों में घुस जाएंगे या काष्ठ जलाकर किवाड़ो को बन्द करके इस ठंड को सह सकेंगे, ऐसा भी कुछ साधु सोचते थे ।।
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[३०२] किन्तु उस शिशिर ऋतु में भी भगवान् ऐसा संकल्प नहीं करते । कभी-कभी रात्रि में भगवान् उस मंडप से बाहर चले जाते, मूहूर्तभर ठहर फिर मंडप में आते । उस प्रकार भगवान् शीतादि परीषह समभाव से सहन करने में समर्थ थे ।
[३०३] मतिमान महामाहन महावीर ने इस विधि का आचरण किया । जिस प्रकार अप्रतिबद्धविहारी भगवान् ने बहुत बार इस विधि का पालन किया, उसी प्रकार अन्य साधु भी आत्म-विसाकार्थ इस विधि का आचरण करते हैं - ऐसा मैं कहता हूँ ।
अध्ययन-९- उद्देश - ३
[३०४] भगवान् घास का कठोर स्पर्श, शीत स्पर्श, गर्मी का स्पर्श, डांस और मच्छरों का दंश; इन नाना प्रकार के दुःखद स्पर्शों को सदा सम्यक् प्रकार से सहते थे ।।
[३०५] दुर्गम लाढ़ देश के वज्र भूमि और सुम्ह भूमि नामक प्रदेश में उन्होंने बहुत ही तुच्छ वासस्थानों और कठिन आसनो का सेवन किया था ।।
[३०६] लाढ़ देश के क्षेत्र में भगवान् ने अनेक उपसर्ग सहे । वहाँ के बहुत से अनार्य लोग भगवान् पर डण्डों आदिसे प्रहार करते थे; भोजन भी प्रायः रूखा-सूखा ही मिलता था । वहाँ के शिकारी कुत्ते उन पर टूट पड़ते और काट खाते थे ।।
[ ३०७] कुत्ते काटने लगते या भौंकते तो बहुत से लोग इस श्रमण को कुत्ते काटें, उस नीयत से कुत्तों को बुलाते और छुछकार कर उनके पीछे लगा देते थे ।
[३०८] उस जनपद में भगवान् ने पुनः पुनः विचरण किया । उस जनपद में दूसरे श्रमण लाठी और नालिका लेकर विहार करते थे ।।
[३०९] वहाँ विचरण करनेवाले श्रमणों को भी पहले कुत्ते पकड़ लेते, काट खाते या नोंच डालते । उस लाढ़ देश में विचरण करना बहुत ही दुष्कर था ।।
[३१०] अनगार भगवान् महावीर प्राणियों के प्रति होनेवाले दण्ड का परित्याग और अपने शरीर के प्रति ममत्व का व्युत्सर्ग करके ( विचरण करते थे) अतः भगवान् उन ग्राम्यजनों के कांटों के समान तीखे वचनों को (निर्जरा हेतु सहन) करते थे ||
[ ३११] हाथी जैसे युद्ध के मोर्चे पर (विद्ध होने पर भी पीछे नहीं हटता) युद्ध का पार पा जाता है, वैसे ही भगवान् महावीर उस लाढ़ देश में परीषह - सेना को जीतकर पारगामी हुए । कभी-कभी लाढ़ देश में उन्हें अरण्य में रहना पड़ा ।।
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[३१२] आवश्यकतावश निवास या आहार के लिए वे ग्राम की ओर जाते थे । वे ग्राम के निकट पहुँचते, न पहुँचते, तब तक तो कुछ लोग उस गाँव से निकलकर भगवान् को रोक लेते, उन पर प्रहार करते और कहते- “यहाँ से आगे कहीं दूर चले जाओ" ।। [३१३] उस लाढ़ देश में बहुत से लोग डण्डे, मुक्के अथवा भाले आदि से या फिर मिट्टी के ढेले या खप्पर से मारते, फिर 'मारो मारो' कहकर होहल्ला मचाते थे ।।
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