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आचार-१/९/१/२७३
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[२७३] अत्यन्त दुःसह्य, तीखे वचनों की परवाह न करते हुए उन्हें सहन करने का पराक्रम करते थे । वे आख्यायिका, नृत्य, गीत, युद्ध आदि में रस नहीं लेते थे ।।
___ [२७४] परस्पर कामोत्तेजक बातों में आसक्त लोगों को ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर हर्षशोक से रहित होकर देखते थे । वे इन दुर्दमनीय को स्मरण न करते हुए विचरते थे ।।
[२७५] (माता-पिता के स्वर्गवास के बाद) भगवान ने दो वर्ष से कुछ अधिक समय तक गृहवास में रहते हुए भी सचित्त जल का उपभोग नहीं किया । वे एकत्वभावना से ओतप्रोत रहते थे, उन्होंने क्रोध-ज्वाला को शान्त कर लिया था, वे सम्यग्ज्ञान-दर्शन को हस्तगत कर चुके थे और शान्तचित्त हो गये थे । फिर अभिनिष्क्रमण किया ।।
[२७६] पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, निगोद-शैवाल आदि, बीज और नाना प्रकार की हरी वनस्पति एवं त्रसकाय - इन्हें - सब प्रकार से जानकर ।।
[२७७] 'ये अस्तित्ववान् हैं', यह देखकर ये चेतनावान् हैं', यह जानकर उनके स्वरुप को भलीभाँति अवगत करके वे उनके आरम्भका परित्याग करके विहार करते थे ।।
[२७८] स्थावर जीव त्रस के रूप में उत्पन्न हो जाते हैं और त्रस जीव स्थावर के रूप में उत्पन्न हो जाते हैं अथवा संसारी जीव सभी योनियों में उत्पन्न हो सकते हैं । अज्ञानी जीव अपने-अपने कर्मों से पृथक्-पृथक् रूप से संसार में स्थित हैं।
[२७९] भगवान् ने यह भलीभाँति जान-मान लिया था कि द्रव्य-भाव-उपधि से युक्त अज्ञानी जीव अवश्य ही क्लेश का अनुभव करता है । अतः कर्मबन्धन को सर्वांग रूप से जानकर कर्म के उपादान रूप पाप का प्रत्याख्यान कर दिया था ।।
[२८०] ज्ञानी और मेधावी भगवान् ने दो प्रकार के कर्मों को भलीभाँति जानकर तथा आदान स्त्रोत, अतिपात स्त्रोत और योग को सब प्रकार से समझकर दूसरों से विलक्षण (निर्दोष) क्रिया का प्रतिपादन किया है ।।
[२८१] भगवान् ने स्वयां पाप-दोष से रहित-निर्दोष अनाकुट्टि का आश्रय लेकर दूसरों को भी हिंसा न करने की (प्रेरणा दी) । जिन्हें स्त्रियाँ परिज्ञात हैं, उन भगवान् महावीर ने देख लिया था कि 'ये काम-भोग समस्त पाप-कर्मों के उपादान कारण हैं,' ।
[२८२] भगवान् ने देखा कि आधाकर्म आदि दीषयुक्त आहार ग्रहण सब तरह से कर्मबन्ध का कारण है, इसलिए उन्होंने आधाकर्मादि दोषयुक्त आहार का सेवन नहीं किया । वे प्रासुक आहार ग्रहण करते थे ।
[२८३] दूसरे के वस्त्र का सेवन नहीं करते थे, दूसरे के पात्र में भी भोजन नहीं करते थे । वे अपमान की परवाह न करके किसी की शरण लिए बिना पाकशाला में भिक्षा के लिए जाते थे ।।
[२८४] भगवान् अशन-पान की मात्रा को जानते थे, वे रसों में आसक्त नहीं थे, वे (भोजन-सम्बन्धी) प्रतिज्ञा भी नहीं करते थे, मुनीन्द्र महावीर आँख में रजकण आदि पड़ जाने पर भी उसका प्रमार्जन नहीं करते थे और न शरीर को खुजलाते थे ।।।
[२८५] भगवान् चलते हुए न तिरछे और न पीछे देखते थे, वे मौन चलते थे, किसी के पूछने पर बोलते नहीं थे । यतनापूर्वक मार्ग को देखते हुए चलते थे ।।
[२८६] भगवान् उस वस्त्र का भी व्युत्सर्ग कर चुके थे । अतः शिशिर ऋतु में वे दोनां