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आचार-१/८/८/२४७
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[२४७] वह वहीं निराहार हो कर लेट जाये । उस समय परीषहों और उपसर्गो से आक्रान्त होने पर सहन करे । मनुष्यकृत उपसर्गो से आक्रान्त होने पर भी मर्यादा का उल्लंघन न करे ।।
[२४८] जो रेंगनेवाले प्राणी हैं, या जो आकाश में उड़नेवाले हैं, या जो बिलों में रहते हैं, वे कदाचित् अनशनधारी मुनि के शरीर का मांस नोचें और रक्त पीएँ तो मुनि न तो उन्हें मारे और न ही रजोहरणादि से प्रमार्जन करे ।।
[२४९] (वह मुनि ऐसा चिन्तन करे) ये प्राणी मेरे शरीर का विघात कर रहे हैं, (मेरे ज्ञानादि आत्मगुणों का नहीं, वह उस स्थान से उठकर अन्यत्र न जाए । (आस्त्रवों से पृथक् हो जाने के कारण तृप्ति अनुभव करता हुआ (उन उपसर्गों को) सहन करे ।।
[२५०] उस संलेखना-साधक की ग्रन्थियाँ खुल जाती हैं, आयुष्य के काल का पारगाम हो जाता है ।
[२५१] ज्ञात-पुत्र ने भक्तप्रत्याख्यान से भिन्न इंगितमरण अनशन का यह आचार-धर्म बताया है । इस में किसी भी अंगापांग के व्यापार का, किसी दूसरे के सहारे का मन, वचन और काया से तथा कृत-कारित-अनुमोदित रूप से त्याग करे ।।
[२५२] वह हरियाली पर शयन न करे, स्थण्डिल को देखकर वहाँ सोए । वह निराहार उपधि का व्युत्सर्ग करके परीषहों तथा उपसर्गों से स्पृष्ट होने पर उन्हें सहन करे ।
[२५३] आहारादि का परित्यागी मुनि इन्द्रियों से ग्लान होने पर समित होकर हाथपैर आदि सिकोड़े । जो अचल है तथा समाहित है, वह परिमित भूमि में शरीर-चेष्टा करता हुआ भी निन्दा का पात्र नहीं होता ।
[२५४] वह शरीर-संधारणार्थ गमन और आगमन करे, सिकोड़े और पसारे । इस में भी अचेतन की तरह रहे ।
[२५५] बैठा-बैठा थक जाये तो चले, या थक जाने पर बैठ जाए, अथवा सीधा खड़ा हो जाये, या लेट जाये । खड़े होने में कष्ट होता हो तो अन्त में बैठ जाए ।
[२५६] इस अद्वितीय मरण की साधना में लीन मुनि अपनी इन्द्रियों को सम्यकप से संचालित करे । घुन-दीमकवाले काष्ठ-स्तम्भ या पट्टे का सहारा न लेकर घुन आदि रहित व निश्छिद्र काष्ठ-स्तम्भ या पट्टे का अन्वेषण करे ।
[२५७] जिससे वज्रवत् कर्म उत्पन्न हों, ऐसी वस्तु का सहारा न ले । उससे या दुर्ध्यान से अपने आपको हटा ले और उपस्थित सभी दुःखस्पर्शों को सहन करे ।
२५८] यह अनशन विशिष्टतर है, पार करने योग्य है । जो विधि से अनुपालन करता है, वह सारा शरीर अकड़ जाने पर भी अपने स्थान से चलित नहीं होता ।
[२५९] यह उत्तम धर्म है । यह पूर्व स्थानद्वय से प्रकृष्टतर ग्रह वाला है । साधक स्थण्डिलस्थान का सम्यक् निरीक्षण करके वहाँ स्थिर होकर रहे ।।
[२६०] अचित को प्राप्त करके वहाँ अपने आपको स्थापित कर दे । शरीर का सब प्रकार से व्युत्सर्ग कर हे । परीषह उपस्थित होने पर ऐसी भावना करे - “यह शरीर ही मेरा नहीं है, तब परीषह (-जनित दुःख मुझे कैसे होंगे) ?
[२६१] जब तक जीवन हैं,तब तक ही ये परीषह और उपसर्ग हैं, यह जानकर संवृत्त