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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
का त्याग करना बहुत कठिन होता 1
इसलिए (वह) मृत्यु की पकड़ में रहता है, इसलिए अमृत (परमपद) से दूर होता है । वह (कामनाओं का निवारण करने वाला) पुरुष न तो मृत्यु की सीमा में रहता है और न मोक्ष से दूर रहता है ।
[१५५] वह पुरुष (कामनात्यागी) कुश की नोंक को छुए हुए (बारम्बार दूसरे जलकण पड़ने से) अस्थिर और वायु के झोके से प्रेरित होकर गिरते हुए जलबिन्दु की तरह जीवन को (अस्थिर) जानता - देखता है । बाल, मन्द, का जीवन भी इसी तरह अस्थिर है, परन्तु वह ( जीवन के अनित्यत्व) को नहीं जान पाता । वह बाल - हिंसादि क्रूर कर्म उत्कृष्ट रूप से करता हुआ तथा उसी दुःख से मूढ उद्विग्न होकर वह विपरीत दशा को प्राप्त होता है ।
उस मोह से बार-बार गर्भ में आता है, जन्म-मरणादि पाता है । इस (जन्म-मरण की परम्परा) में उसे बारम्बार मोह उत्पन्न होता है ।
[१५६] जिसे संशय का परिज्ञान हो जाता है, उसे संसार के स्वरूप का परिज्ञान हो जाता है । जो संशय को नहीं जानता, वह संसार को भी नहीं जानता ।
[१५७] जो कुशल है, वह मैथुन सेवन नहीं करता । जो ऐसा करके उसे छिपाता है, वह उस मूर्ख की दूसरी मूर्खता है । उपलब्ध काम-भोगों का पर्यालोचन करके, सर्व प्रकार से जानकर उन्हें स्वयं सेवन न करे और दूसरों को भी काम-भोगों के कटुफल का ज्ञान कराकर उनके अनासेवन की आज्ञा दे, ऐसा मैं कहता हूँ ।
[१५८] हे साधको ! विविध काम-भोगों में गृद्ध जीवों को देखो, जो नरक-तिर्यंच आदि यातना - स्थानों में पच रहे हैं - उन्हीं विषयों से खिंचे जा रहे हैं । इस संसार प्रवाह में उन्हीं स्थानों का बारम्बार स्पर्श करते हैं । इस लोक में जितने भी मनुष्य आरम्भजीवी हैं, वे इन्हीं (विषयासक्तियों) के कारण आरम्भजीवी हैं ।
अज्ञानी साधक इस संयमी जीवन में भी विषय - पिपासा से छटपटाता हुआ अश को ही शरण मान कर पापकर्मों में रमण करता है ।
इस संसार के कुछ साधक अकेले विचरण करते हैं । यदि वह साधक अत्यन्त क्रोधी है, अतीव अभिमानी है, अत्यन्त मायी है, अति लोभी है, भोगों में अत्यासक्त है, नट की तरह बहुरूपिया है, अनेक प्रकार की शठता करता है, अनेक प्रकार के संकल्प करता है, हिंसादि आस्त्रवों में आसक्त रहता है, कर्मरूपी पलीते से लिपटा हुआ है, 'मैं भी साधु हूँ, धर्माचरण के लिए उद्यत हुआ हूँ', इस प्रकार से उत्थितवाद बोलता है, 'मुझे कोई देख न ले' इस आशंका से छिप छिपकर अनाचार करता है, वह यह सब अज्ञान और प्रमाद के दोष से सतत मूढ़ बना हुआ (है), वह मोहमूद धर्म को नहीं जानता ।
हे मानव ! जो लोग प्रजा (विषय- कषायों) से आर्त्त - पीड़ित हैं, कर्मबन्धन करने में ही चतुर हैं, जो आश्रवों से विरत नहीं हैं, जो अविद्या से मोक्ष प्राप्त होना बतलाते हैं, वे संसार के भंवर-जाल में बराबर चक्कर काटते रहते हैं । ऐसा मैं कहता हूँ ।
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अध्ययन - ५ उद्देशक - २
[१५९] इस मनुष्य लोक में जितने भी अनारम्भजीवी हैं, वे ( आरम्भ - प्रवृत्त गृहस्थों)