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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
( मूर्च्छा - ममता न रखने के कारण ) ही अपरिग्रही हैं । मेधावी साधक ( आगमरूप) वाणी सुनकर तथा पण्डितों के वचन पर चिन्तन-मनन करके ( अपरिग्रही) बने ।
आर्यों (तीर्थंकरों) ने 'समता में धर्म कहा है ।'
( भगवान् महावीर ने कहा-) जैसे मैंने ज्ञान-दर्शन- चारित्र - इन तीनों की सन्धि रूप साधना की है, वैसी साधना अन्यत्र दुःसाध्य है । इसलिए मैं कहता हूँ - (तुम मोक्षमार्ग की इस समन्वित साधना में पराक्रम करो), अपनी शक्ति को छिपाओ मत ।
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[१६५] (इस मुनिधर्म में मोक्ष मार्ग साधक तीन प्रकार के होते हैं ) - एक वह होता है - जो पहले साधना के लिए उठता है और बाद में (जीवन पर्यन्त) उत्थित ही रहता है । दूसरा वह है - जो पहले साधना के लिए उठता है, किन्तु बाद में गिर जाता है । तीसरा वह होता है - जो न तो पहले उठता है और न ही बाद में गिरता है ।
जो साधक लोक को परिज्ञा से जान और त्याग कर पुनः उसी का आश्रय लेता या ढूँढता है, वह भी वैसा ही (गृहस्थतुल्य) हो जाता है ।
[१६६] इस (उत्थान-पतन के कारण ) को केवलज्ञानालोक से जानकर मुनीन्द्र ने कहा - मुनि आज्ञा में रुचि रखे, वह पण्डित है, अतः स्नेह से दूर रहे । रात्रि के प्रथम और अन्तिम भाग में (स्वाध्याय में) यत्नवान् रहे, सदा शील का सम्प्रेक्षण करे (लोक में सारभूत तत्त्व को) सुनकर काम और लोभेच्छा से मुक्त हो जाए ।
इसी (कर्म - शरीर ) के साथ युद्ध कर, दूसरों के साथ युद्ध करने में तुझे क्या मिलेगा ? [१६७] (अन्तर-भाव ) युद्ध के योग अवश्य ही दुर्लभ है । जैसे कि तीर्थंकरों ने इस ( भावयुद्ध) के परिज्ञा और विवेक ( ये दो शस्त्र) बताए हैं ।
(मोक्ष - साधना के लिए उत्थित होकर ) भ्रष्ट होने वाला अज्ञानी साधक गर्भ आदि में फँस जाता है । इस आर्हत् शासन में यह कहा जाता है - रूप ( तथा रसादि) में एवं हिंसा में (आसक्त होने वाला उत्थित होकर भी पतित हो जाता है )
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केवल वही एक मुनि मोक्षपथ पर अभ्यस्त रहता है, जो लोक का अन्यथा उत्प्रेक्षण करता रहा है अथवा जो लोक की उपेक्षा करता रहता है ।
इस प्रकार कर्म को सम्यक् प्रकार जानकर वह सब प्रकार से हिंसा नहीं करता, संयम का आचरण करता है, (अकार्य में प्रवृत्त होने पर) धृष्टता नहीं करता । प्रत्येक प्राणी का सुख अपना-अपना होता है, यह देखता हुआ ( वह किसी की हिंसा न करे ) ।
मुनि समस्त लोक में कुछ भी आरम्भ तथा प्रशंसा का अभिलापी होकर न करे । मुनि अपने एकमात्र लक्ष्य - मोक्ष की ओर मुख करके ( चले), वह (मोक्षमार्ग से) विपरीत दिशाओं को तेजी से पार कर जाए, विरक्त, होकर चले, स्त्रियों के प्रति अरत रहे ।
[१६८] संयमधनी मुनि के लिए सर्व समन्वागत प्रज्ञारूप अन्तःकरण से पापकर्म अकरणीय है, अतः साधक उनका अन्वेषण न करे । जिस सम्यक् को देखते हो, वह मुनित्व को देखते हो, जिस मुनित्व को देखते हो, वह सम्यक् को देखते हो ।
(सम्यक्त्व) का सम्यक्रूप से आचरण करना उन साधकों द्वारा शक्य नहीं है, जो शिथिल हैं, आसक्तिमूलक स्नेह से आर्द्र बने हुए हैं, विषयास्वादन में लोलुप हैं, वक्राचारी हैं, प्रमादी हैं, जो गृहवासी हैं ।