________________
५६
आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
अध्ययन - ८ - उद्देशक - ४
[२२४] जो भिक्षु तीन वस्त्र और चौथा पात्र रखने की मर्यादा में स्थित है । उसके मन में ऐसा अध्यवसाय नहीं होता कि "मैं चौथे वस्त्र की याचना करूँगा ।" वह यथाएषणीय वस्त्रों की याचना करे और यथापरिगृहीत वस्त्रों को धारण करे ।
वह उन वस्त्रों को न तो धोए और न रंगे, न धोए रंगे हुए, वस्त्रों को धारण करे । दूसरे ग्रामों में जाते समय वह उन वस्त्रों को बिना छिपाए हुए चले । वह मुनि स्वल्प और अतिसाधारण वस्त्र रखे । वस्त्रधारी मुनि की यही सामग्री है ।
[२२५] जब भिक्षु यह जान ले कि 'हेमन्त ऋतु' बीत गयी है, ग्रीष्म ऋतु आ गयी है, तब वह जिन-जिन वस्त्रों को जीर्ण समझे, उनका परित्याग कर दे । उन यथापरिजीर्ण वस्त्रों का परित्याग करके या तो एक अन्तर (सूती) वस्त्र और उत्तर ( ऊनी) वस्त्र साथ में रखे ; अथवा वह एकशाटक वाला होकर रहे । अथवा वह अचेलक हो जाए ।
[२२६] ( इस प्रकार ) लाघवता को लाता या उसका चिन्तन करता हुआ वह उस वस्त्रपरित्यागी मुनि के (सहज में ही ) तप सध जाता है
।
[२२७] भगवान् ने जिस प्रकार से इस ( उपधि-विमोक्ष) का प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में गहराई - पूर्वक जानकर सब प्रकार से सर्वात्मना ( उसमें निहित ) समत्व को सम्यक् प्रकार से जाने व कार्यान्वित करे ।
[२२८] जिस भिक्षु को यह प्रतीत हो कि मैं आक्रान्त हो गया हूँ, और मैं इस अनुकूल परीषहों को सहन करने में समर्थ नहीं हूँ, (वैसी स्थिति में ) कोई-कोई संयम का धनी भिक्षु स्वयं को प्राप्त सम्पूर्ण प्रज्ञान एवं अन्तःकरण से उस उपसर्ग के वश न होकर उसका सेवन न करने लिए दूर हो जाता हैं ।
उस तपस्वी भिक्षु के लिए वही श्रेयस्कर है, ऐसी स्थिति में उसे वैहानस आदि से मरण स्वीकार करना श्रेयस्कर है । ऐसा करने में उसका वह काल - पर्याय - मरण है ।
वह भिक्षु भी उस मृत्यु से अन्तक्रियाकर्ता भी हो सकता है ।
-
इस प्रकार यह मरण प्राण- मोह से मुक्त भिक्षुओं का आयतन हितकर, कालोपयुक्त, निःश्रेयस्कर, परलोक में साथ चलने वाला होता हैं । ऐसा मैं कहता हूँ ।
अध्ययन - ८ - उद्देशक - ५
[२२९] जो भिक्षु दो वस्त्र और तीसरे पात्र रखने की प्रतिज्ञा में स्थित है, उसके मन में यह विकल्प नहीं उठता कि मैं तीसरे वस्त्र की याचना करूँ । वह अपनी कल्पमर्यादानुसार ग्रहणीय वस्त्रों की याचना करे । इससे आगे वस्त्र - विमोक्ष के सम्बन्ध में पूर्ववत् समझ लेना चाहिए ।
यदि भिक्षु यह जाने कि हेमन्त ऋतु व्यतीत हो गयी है, ग्रीष्म ऋतु आ गयी है, तब वह जैसे-जैसे वस्त्र जीर्ण हो गए हों, उनका परित्याग कर दे । यथा परिजीर्ण वस्त्रों का परित्याग करके यातो वह एक शाटक में रहे, या वह अचेल हो जाए । वह लाघवता का सर्वतोमुखी विचार करता हुआ (क्रमशः वस्त्र - विमोक्ष प्राप्त करे) । ( इस प्रकार ) मुनि को तप सहज ही प्राप्त हो जाता हैं ।