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आचार- १/६/१/१८६
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( धर्माचरण के लिए) सम्यक् उद्यत है, मन, वाणी और काया से जिन्होंने दण्डरूप हिंसा का त्याग कर स्वयं को संयमित किया है, जो समाहित हैं तथा सम्यग् ज्ञानवान् हैं । कुछ (विरले लघुकर्मा) महान् वीर पुरुष इस प्रकार के ज्ञान के आख्यान को सुनकर (संयम में) पराक्रम भी करते हैं ।
(किन्तु ) उन्हें देखो, जो आत्मप्रज्ञा से शून्य हैं, इसलिए (संयम में) विषाद पाते हैं, मैं कहता हूँ - जैसे एक कछुआ होता है, उसका चित्त (एक) महाहद में लगा हुआ है । वह सरोवर शैवाल और कमल के पत्ते से ढका हुआ है । वह कछुआ उन्मुक्त आकाश को देखने के लिए (कहीं) छिद्र को भी नहीं पा रहा हैं । जैसे वृक्ष अपने स्थान को नहीं छोड़ते, वैसे ही कुछ लोग हैं (जो अनेक सांसारिक कष्ट, आदि बार-बार पाते हुए भी गृहवास को नहीं छोड़ते ) ।
इसी प्रकार कई (गुरुकर्मा) लोग अनेक कुलों में जन्म लेते हैं, किन्तु रूपादि विषयों में आसक्त होकर (अनेक प्रकार के दुःखों से, उपद्रवों से आक्रान्त होने पर) करुण विलाप करते हैं, लेकिन गृहवास को नहीं छोड़ते ) । ऐसे व्यक्ति दुःखो के हेतुभूत कर्मों से मुक्त नहीं हो पाते ।
अच्छा तू देख वे ( मूढ मनुष्य) उन कुलों में आत्मत्व के लिए निम्नोक्त रोगों के शिकार हो जाते हैं ।
[१८७] गण्डमाला, कोढ़, राजयक्ष्मा, अपस्मार, काणत्व, जड़ता, कुणित्व, कुबड़ापन । [१८८] उदररोग, मूकरोग, शोथरोग, भस्मकरोग, कम्पनवात्, पंगुता, श्लीपदरोग और
मधुमेह ।
[१८९] ये सोलह रोग क्रमशः कहे गये हैं । इसके अनन्तर आतंक और अप्रत्याशित ( दुःखो के ) स्पर्श प्राप्त होते हैं ।
[१९०] उन मनुष्यों की मृत्यु का पर्यालोचन कर, उपपात और च्यवन को जानकर तथा कर्मों के विपाक का भली-भाँति विचार करके उसके यथातथ्य को सुनो । ( इस संसार में) ऐसे भी प्राणी बताए गए हैं, जो अन्धे होते हैं और अन्धकार में ही रहते हैं । वे प्राणी उसी को एक बार या अनेक बार भोगकर तीव्र और मन्द स्पर्शो का प्रतिसंवेदन करते हैं । बुद्धो (तीर्थकरो) ने इस तथ्य का प्रतिपादन किया है ।
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( और भी अनेक प्रकार के) प्राणी होते हैं, जैसे - वर्षज, रसज, उदक रूप- एकेन्द्रिय अप्कायिक जीव या जल में उत्पन्न होने वाले कृमि या जलचर जीव, आकाशगामी पक्षी आदि वे प्राणी अन्य प्राणियों को कष्ट देते हैं ।
( अतः ) तू देख, लोक में महान् भय है ।
[१९१] संसार में जीव बहुत दुःखी हैं । मनुष्य काम-भोगों में आसक्त हैं । इस निर्बल शरीर को सुख देने के लिए प्राणियों के वध की इच्छा करते हैं । वेदना से पीड़ित वह मनुष्य बहुत दुःख पाता है । इसलिए वह अज्ञानी प्राणियों को कष्ट देता है ।
इन (पूर्वोक्त) अनेक रोगों को उत्पन्न हुए जानकर आतुर मनुष्य (चिकित्सा के लिए दूसरे प्राणियों को ) परिताप देते हैं । तू (विवेकदृष्टि से ) देख । ये ( प्राणिघातक - चिकित्साविधियाँ कर्मोदयजनित रोगों का शमन करने में समर्थ नहीं हैं । ( अतः । ) इन से तुमको दूर रहना