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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
इस जगत् में जो भी आर्य हैं, उन्होंने ऐसा कहा है- “ओ हिंसावादियो ! आपने दोषपूर्ण देखा है, दोपयुक्त सुना है, दोषयुक्त मनन किया है, आपने दोषयुक्त ही समझा है, ऊँची-नीची-तिरछी सभी दिशाओं में सर्वथा दोषपूर्ण होकर निरीक्षण किया है, जो आप ऐसा कहते हैं, ऐसा भाषण करते हैं, ऐसा प्रज्ञापन करते हैं, ऐसा प्ररूपण करते हैं कि सभी प्राण, भूत, जीव और सत्त्व हनन करने योग्य हैं, यावत् प्राणहीन बनाया जा सकता है; यह निश्चित समझ लो कि हिंसा में कोई दोष नहीं ।" यह सरासर अनार्य - वचन है ।
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हम इस प्रकार कहते हैं, ऐसा ही भाषण करते हैं, ऐसा ही प्रज्ञापन करते हैं, ऐसा ही प्ररूपण करते हैं कि सभी प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों की हिंसा नहीं करनी चाहिए, उनको जबरन शासित नहीं करना चाहिए, उन्हें पकड़ कर दास नहीं बनाना चाहिए, न ही परिताप देना चाहिए और न उन्हें डराना-धमकाना, प्राणरहित करना चाहिए । इस सम्बन्ध में निश्चित समझ लो कि अहिंसा का पालन सर्वथा दोष रहित है । यह आर्यवचन है ।
पहले उनमें से प्रत्येक दार्शनिक को, जो-जो उसका सिद्धान्त है, उसे हम पूछेंगे - "हे दार्शनिको ! आपको दुःख प्रिय है या अप्रिय ? यदि आप कहें कि हमें दुःख प्रिय है, तब तो वह उत्तर प्रत्यक्ष - विरुद्ध होगा, यदि आप कहें कि हमें दुःख प्रिय नहीं है, तो आपके द्वारा इस सम्यक् सिद्धान्त के स्वीकार किए जाने पर हम आपसे यह कहना चाहेंगे कि, “जैसे आपको दुःख प्रिय नहीं है, वैसे ही सभी प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों को दुःख असाताकारक है, अप्रिय है, अशान्तिजनक है और महा भयंकर है ।" ऐसा मैं कहता हूँ ।"
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अध्ययन - ४ उद्देसक - ३
[१४७] इस (पूर्वोक्त अहिंसादि धर्म से ) विमुख जो लोग हैं, उनकी उपेक्षा कर ! जो ऐसा करता है, वह समस्त मनुष्य लोक में अग्रणी विज्ञ है । तू अनुचिन्तन करके देख - जिन्होंने दण्ड का त्याग किया है, (वे ही श्रेष्ठ विद्वान् होते हैं ।) जो सत्त्वशील मनुष्य धर्म के सम्यक् विशेषज्ञ होते हैं, वे ही कर्म का क्षय करते हैं । ऐसे मनुष्य धर्मवेत्ता होते हैं, अतएव वे सरल होते हैं, शरीर के प्रति अनासक्त या कषायरूपी अर्चा को विनष्ट किये हुए होते हैं ।
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इस दुःख को आरम्भ से उत्पन्न हुआ जानकर (समस्त हिंसा का त्याग करना चाहिए ) ऐसा समत्वदर्शियों ने कहा है । वे सब प्रावादिक होते हैं, वे दुःख को जानने में कुशल होते हैं । इसलिए वे कर्मों को सब प्रकार से जानकर उनको त्याग करने का उपदेश देते हैं । [१४८] यहाँ (अर्हत्प्रवचन में) आज्ञा का आकांक्षी पण्डित अनासक्त होकर एकमात्र आत्मा को देखता हुआ, शरीर को प्रकम्पित कर डाले । अपने कषाय- आत्मा को कृश करे, जीर्ण कर डाले । जैसे अग्नि जीर्ण काष्ठ को शीघ्र जला डालती है, वैसे ही समाहित आत्मा वाला वीतराग पुरुष प्रकम्पित, कृश एवं जीर्ण हुए कषायात्मा को शीघ्र जला डालता है । [१४९] यह मनुष्य-जीवन अल्पायु है, यह सम्प्रेक्षा करता हुआ साधक अकम्पित रहकर क्रोध का त्याग करे । (क्रोधादि से) वर्तमान में अथवा भविष्य में उत्पन्न होने वाले दुःखो को जाने । क्रोधी पुरुष भिन्न-भिन्न नरकादि स्थानों में विभिन्न दुःखों का अनुभव करता है । प्राणिलोक को इधर-उधर भाग-दौड़ करते देख ! जो पुरुष पापकर्मों से निवृत्त हैं, वे अनिदान कहे गये हैं । इसलिए हे अतिविद्वान् ! तू (विषय-कषाय की अग्नि से) प्रज्वलित मत हो । ऐसा मैं कहता हूँ ।
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