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मेधावी समस्त पापकर्मों का शोषण कर डालता है । [१२१] वह (असंयमी ) पुरुष अनेक चित्त वाला है । वह चलनी को (जल से ) भरना चाहता है । वह (तृष्णा की पूर्ति के लिए) दूसरों के वध, परिताप, तथा परिग्रह के लिए तथा जनपद के वध, परिताप, और परिग्रह के लिए ( प्रवृत्ति करता है ) ।
[१२२] इस प्रकार कई व्यक्ति इस अर्थ का आसेवन करके संयम - साधना में संलग्न हो जाते हैं । इसलिए वे फिर दुबारा उनका आसेवन नहीं करते ।
हे ज्ञानी ! विषयों को निस्सार देखकर (तू विषयाभिलाषा मत कर ) । केवल मनुष्यों के ही, जन्म-मरण नहीं, देवों के भी उपपात और च्यवन निश्चित हैं, यह जानकर (विषय- सुखों में आसक्त मत हो) । हे माहन ! तू अनन्य का आचरण कर । वह (अनन्यसेवी मुनि) प्राणियों की हिंसा स्वयं न करे, न दूसरों से हिंसा कराए और न हिंसा करने वाले का अनुमोदन करे ।
आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
तू (कामभोग-जनित) आमोद-प्रमोद से विरक्ति कर । प्रजाओं (स्त्रियों) में अरक्त रह । अनवमदर्शी (सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप मोक्षदर्शी साधक) पापकर्मों से उदासीन रहता है । [१२३] वीर पुरुष कषाय के आदि अंग क्रोध और मान को मारे, लोभ को महान नरक के रूप में देखे । इसलिए लघुबूत बनने का अभिलाषी, वीर हिंसा से विरत होकर स्त्रोतों को छिन्न-भिन्न कर डाले ।
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[१२४] हे वीर ! इस लोक में ग्रन्थ (परिग्रह) को ज्ञपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से आज ही अविलम्ब छोड़ दे, इसी प्रकार (संसार के ) स्त्रोत को भी जानकर दान्त बनकर संयम में विचरण कर । यह जानकर कि यहीं ( मनुष्य जन्म में ) मनुष्यों द्वारा ही उन्मज्जन या कर्मों से उन्मुक्त होने का अवसर मिलता है, मुनि प्राणियों के प्राणों का समारम्भ न करे । ऐसा मैं कहता हूँ ।
अध्ययन- ३ उद्देशक- ३
[१२५] साधक (धर्मानुष्ठान की अपूर्व ) सन्धि समझ कर प्रमाद करना उचित नहीं है । अपनी आत्मा के समान बाह्य जगत को देख ! (सभी जीवों को मेरे समान ही सुख प्रिय है, दुःख अप्रिय है) यह समझकर मुनि जीवों का हनन न करे और न दूसरों से घात कराए । जो परस्पर एक-दूसरे की आशंका से भय से, या दूसरे के सामने लज्जा के कारण पाप कर्म नहीं करता, तो क्या ऐसी स्थिति में उस का कारण मुनि होता है ? (नहीं)
[१२६] इस स्थिति में (मुनि) समता की द्रष्टि से पर्यालोचन करके आत्मा को प्रसाद रखे । ज्ञानी मुनि अनन्य परम के प्रति कदापि प्रमाद न करे । वह साधक सदा आत्मगुप्त और वीर रहे, वह अपनी संयम - यात्रा का निर्वाह परिमित आहार से करे ।
वह साधक छोटे या बड़े रूपों - ( द्रश्यमान पदार्थों) के प्रति विरति धारण करे । [१२७] समस्त प्राणियों की गति और आगति को भला-भाँति जानकर जो दोनों अन्तों (राग और द्वेष ) से दूर रहता है, वह समस्त लोक में किसी से (कहीं भी) छेदा नहीं जाता, भेदा नहीं जाता, जलाया नहीं जाता और मारा नहीं जाता ।
[१२८] कुछ (मूढमति) पुरुष भविष्यकाल के साथ पूर्वकाल का स्मरण नहीं करते ।