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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
और तिरछी दिशाओं में, सब प्रकार से समग्र परिज्ञा/विवेकज्ञान के साथ चलता है । वह हिंसा-स्थान से लिप्त नहीं होता ।
वह मेघावी है, जो अहिंसा का समग्र स्वरूप जानता है, तथा जो कर्मों के बंधन से मुक्त होने की अन्वेषणा करता है । कुशल पुरुष न बंधे हुए हैं और न मुक्त हैं ।
[१०७] उन कुशल साधकों ने जिसका आचरण किया है और जिसका आचरण नहीं किया है (यह जानकर, श्रमण) उनके द्वारा अनाचरित प्रवृत्ति का आचरण न करे । हिंसा को जानकर उसका त्याग कर दे । लोक-संज्ञा को भी सर्व प्रकार से जाने और छोड़ दे ।
[१०८] द्रष्टा के लिए कोई उद्देश (अथवा उपदेश) नहीं है । बाल बार-बार विषयों में स्नेह करता है । काम-इच्छा और विषयों को मनोज्ञ समझकर (सेवन करता है) इसीलिए वह दुःखों का शमन नहीं कर पाता । वह दुःखों से दुःखी बना हुआ दुःखों के चक्र में ही परिभ्रमण करता रहता है । ऐसा मैं कहता हूँ । (अध्ययन-२ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण)
(अध्ययन-३ शीतोष्णीय
उद्देसक-१ [१०९] अमुनि (अज्ञानी) सदा सोये हुए हैं, मुनि (ज्ञानी) सदैव जागते रहते हैं ।
[११०] इस बात को जान लो कि लोक में अज्ञान अहित के लिए होता है । लोक में इस आचार को जानकर (संयम में बाधक) जो शस्त्र हैं, उनसे उपरत रहे ।
जिस पुरुष ने शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श को सम्यक्प्रकार से परिज्ञात किया है-(जो उनमें रागद्वेष न करता हो)
[१११] वह आत्मवान्, ज्ञानवान्, वेदवान्, धर्मवान् और ब्रह्मवान् होता है । जो पुरुष अपनी प्रज्ञा से लोक को जानता है, वह मुनि कहलाता है । वह धर्मवेत्ता और ऋजु होता है । (वह) संग को आवर्त-स्त्रोत (जन्म-मरणादि चक्रस्त्रोत) के रूप में बहुत निकट से जान लेता है ।
[११२] वह निर्ग्रन्थ शीत और उष्ण (सुख और दुःख) का त्यागी (इनकी लालसा से) मुक्त होता है तथा वह अरति और रति को सहन करता है तथा स्पर्शजन्य सुख-दुःख का वेदन नहीं करता । जागृत और वैर से उपरत वीर ! तू इस प्रकार दुःखों से मुक्ति पा जाएगा ।
बुढ़ापे और मृत्यु के वश में पड़ा हुआ मनुष्य सतत मूढ बना रहता है । वह धर्म को नहीं जान पाता ।
_[११३] (सुप्त) मनुष्यों को दुःखों से आतुर देखकर साधक सतत अप्रमत्त होकर विचरण करे । हे मतिमान् ! तू मननपूर्वक इन (-दुखियों) को देख । यह दुःख आरम्भज है, यह जानकर (तू निरारम्भ होकर अप्रमत्त भाव से आत्महित में प्रवृत्त रह) । माया और प्रमाद के वश हुआ मनुष्य बार-बार जन्म लेता है।
शब्द और रूप आदि के प्रति जो उपेक्षा करता है, वह ऋजु होता है, वह मार के प्रति सदा आशंकित रहता है और मृत्यु से मुक्त हो जाता है । जो काम-भोगों के प्रति अप्रमत्त है, पाप कर्मों से उपरत है, वह पुरुष वीर और आत्मगुप्त होता है और जो (अपने आप में