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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
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शरीर में रोग की पीड़ा उत्पन्न होने लगती है ।
जिन स्वजन - स्नेहियों के साथ वह रहता आया है, वे ही उसे ( रोग आदि के कारण घृणा करके) पहले छोड़ देते हैं । बाद में वह भी अपने स्वजन - स्नेहियों को छोड़ देता है । हे पुरुष ! न तो वे तेरी रक्षा करने और तुझे शरण देने में समर्थ हैं, और न तूही उनकी रक्षा व शरण के लिए समर्थ है।
[ ६९ ] प्रत्येक प्राणी का सुख और दुःख
[७०] अपना-अपना है, यह जानकर ( आत्मद्रष्टा बने ) ।
[ ७१] जो अवस्था ( यौवन एवं शक्ति) अभी बीती नहीं है, उसे देखकर, हे पंडित ! क्षण (समय) को / अवसर को जान ।
[७२] जब तक श्रोत्र - प्रज्ञान परिपूर्ण है, इसी प्रकार नेत्र- प्रज्ञान, ध्राण-प्रज्ञान, रसना - प्रज्ञान और स्पर्श - प्रज्ञान परिपूर्ण है, तब तक इन नानारूप प्रज्ञानों के परिपूर्ण रहते हुए आत्म-हित के लिए सम्यक् प्रकार से प्रयत्नशील बने । ऐसा मैं कहता हुं । अध्ययन - २ उद्देसक - २
[ ७३] जो अरति से निवृत्त होता है, वह बुद्धिमान है । वह बुद्धिमान् विषय- तृष्णा से क्षणभर में ही मुक्त हो जाता है ।
[७४] अनाज्ञा में ( वीतराग विहित - विधि के विपरीत) आचरण करने वाले कोईकोई संयम - जीवन में परीषह आने पर वापस गृहवासी भी बन जाते हैं । वे मंद बुद्धि अज्ञानी मोह से आवृत्त रहते हैं ।
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कुछ व्यक्ति 'हम अपरिग्रही होंगे ऐसा संकल्प करके संयम धारण करते हैं, किन्तु जब काम सेवन (इन्द्रिय विषयों के सेवन) का प्रसंग अपस्थित होता है, तो उसमें फँस जाते हैं । वे मुनि वीतराग - आज्ञा से बाहर ( विषयों की ओर) देखने / ताकने लगते हैं ।
इस प्रकार वे मोह में बार-बार निमग्न होते जाते हैं । इस दशा में वे न तो इस तीर (गृहवास) पर आ सकते हैं और न उस पार ( श्रमणत्व) जा सकते हैं ।
[ ७५ ] जो विषयों के दलदल से पारगामी होते हैं, वे वास्तव में विमुक्त हैं । अलोभ (संतोष) से लोभ को पराजित करता हुआ साधक काम भोग प्राप्त होने पर भी उनका सेवन नहीं करता (लोभ- विजय ही पार पहुँचने का मार्ग है ) ।
[ ७६ ] जो लोभ से निवृत्त होकर प्रवज्या लेता है, वह अकर्म होकर (कर्मावरण से मुक्त होकर ) सब कुछ जानता है, देखता है । जो प्रतिलेखना कर, विषय- कषायों आदि के परिणाम का विचार कर उनकी आकांक्षा नहीं करता, वह अनगार कहलाता है ।
( जो विषयों से निवृत्त नहीं होता) वह रात-दिन परितप्त रहता है । काल या अकाल में सतत प्रयत्न करता रहता है । विषयों को प्राप्त करने का इच्छुक होकर धन का लोभी बनता है । चोर व लुटेरा बनता है । उसका चित्त व्याकुल व चंचल बना रहता है । और वह पुन:पुनः शस्त्र-प्रयोग करता रहता है । वह आत्म- बल, ज्ञाति-बल, मित्र- बल, प्रेत्य-बल, देव-बल, राज- बल, चोर-बल, अतिथि- बल, कृपण-बल और श्रमण-बल के संग्रह के लिए अनेक प्रकार के कार्यों द्वारा दण्डप्रयोग करता है ।