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आचार--१/२/२/७६
कोई किसी कामना से एवं कोई भय के कारण हिंसा आदि करता । कोई पाप मुक्ति पाने की भावना से हिंसा करता है । कोई किसी आशा से हिंसा - प्रयोग करता है । [७७] यह जानकर मेधावी पुरुष पहले बताये गये प्रयोजनों के लिए स्वयं हिंसा न करे, दूसरों से हिंसा न करवाए तथा हिंसा करनेवाले का अनुमोदन न करे । यह मार्ग आर्य पुरुषोंने बताया है । कुशलपुरुष इन विषयों में लिप्त न हों । ऐसा मैं कहता हूँ । अध्ययन - २ उद्देसक - ३
[ ७८ ] यह पुरुष अनेक बार उच्चगोत्र और अनेकबार नीच गोत्र को प्राप्त चुका हो । इसलिए यहाँ न तो कोई हीन है और न कोई अतिरिक्त है । यह जानकर उच्चगोत्र की स्पृहा न करे । यह जान लेने पर कौन गोत्रवादी होगा ? कौन मानवादी होगा ? और कौन किस एक गोत्र में आसक्त होगा ? इसलिए विवेकशील मनुष्य उच्चगोत्र प्राप्त होने पर हर्षित न हो और नीचगोत्र प्राप्त होने पर कुपित न हो । प्रत्येक जीव को सुख प्रिय है
[७९] यह तू देख, इस पर सूक्ष्मतापूर्वक विचार कर । जो समित है वह इस को देखता है । जैसे अन्धापन, बहरापन, गूंगापन, कानापन, लूला-लंगड़ापन, कुबड़ापन, बौनापन, कालापन, चितकबरापन आदि की प्राप्ति अपने प्रमाद के कारण होती है । वह अपने प्रमाद के कारण ही नाना प्रकार की योनियों में जाता है और विविध प्रकार के आघातों - दुःखों का अनुभव करता है ।
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[८०] वह प्रमादी पुरुष कर्म - सिद्धान्त को नहीं समझाता हुआ शारीरिक दुःखों से हत तथा मानसिक पीड़ाओं से उपहत पुनः पुनः पीड़ित होता हुआ जन्म-मरण के चक्र में बारबार भटकता है । जो मनुष्य, क्षेत्र खुली भूमि तथा वास्तु भवन-मकान आदि में ममत्व रखता है, उनको यह असंयत जीवन ही प्रिय लगता है । वे रंग-बिरंगे मणि, कुण्डल, हिरण्यस्वर्ण, और उनके साथ स्त्रियों का परिग्रह कर उनमें अनुरक्त रहते हैं ।
परिग्रही पुरुष में न तप होता है, न दम- इन्द्रिय - निग्रह होता है और न नियम होता है । वह अज्ञानी, ऐश्वर्यपूर्ण सम्पन्न जीवन जीने की कामना करता रहता है । बार-बार सुखप्राप्ति की अभिलाषा करता रहता है । किन्तु सुखों की अ-प्राप्ति व कामना की व्यथा से पीड़ित हुआ वह मूढ़ विपर्यास को ही प्राप्त होता है ।
[८१] जो पुरुष ध्रुवचारी होते हैं, वे ऐसा विपर्यासपूर्ण जीवन नहीं चाहते । वे जन्ममरण के चक्र को जानकर द्रढ़तापूर्वक मोक्ष के पथ पर बढ़ते रहें ।
[८२] काल का अनागमन नहीं है, मृत्यु किसी भी क्षण आ सकती है । सब को आयुष्य प्रिय है । सभी सुख का स्वाद चाहते हैं । दुःख से धबराते हैं । उनको वध अप्रिय है, जीवन प्रिय है । वे जीवित रहना चाहते हैं ।
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सब को जीवन प्रिय है ।
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वह परिग्रह में आसक्त हुआ मनुष्य, द्विपद और चतुष्पद का परिग्रह करके उनका उपयोग करता है । उनको कार्य में नियुक्त करता है । फिर धन का संग्रह करता | अपने दूसरों के और दोनों के सम्मिलित प्रयत्नों से उसके पास अल्प या बहुत मात्रा में धनसंग्रह हो
है । वह उस अर्थ में गृद्ध हो जाता है और भोग के लिए उसका संरक्षण करता है । पश्चात् वह विविध प्रकार से भोगोपभोग करने के बाद बची हुई विपुल अर्थ - सम्पदा से महान्