Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text
________________
४०
आवश्यक नियुक्ति पाद की पुनरावृत्ति कर सकते हैं। इस गाथा की चूर्णि में व्याख्या भी नहीं है अतः २०७/१ गाथा भाष्य
की होनी चाहिए। १५. अनेक स्थलों पर हमने अपने चिंतन के आधार पर भी गाथाओं का निर्णय किया है। २३२/१ गाथा
टीकाओं में नियुक्ति गाथा के क्रम में व्याख्यात है लेकिन इसके नियुक्तिगाथा न होने के निम्न कारण हो सकते हैं• २३२/१ में जिस शैली में उत्तर है, उसी शैली में भाष्य में इस उत्तर का प्रश्न दिया हुआ है। प्रश्न
भाष्यकार का और उत्तर नियुक्तिकार का हो यह संभव नहीं है। • नियुक्तिकार ने गा. २३२ में द्वार गाथा के माध्यम से तीर्थंकर, चक्रवर्ती और वासुदेव आदि द्वारों के
वर्णन करने की प्रतिज्ञा की है। पुनः गाथा के माध्यम से प्रश्न करना कि कितने तीर्थंकर या चक्रवर्ती हुए, यह बात अटपटी लगती है। • इस प्रकार की प्रश्नात्मक गाथाएं आगे भाष्य के क्रम में और भी आई हैं। देखें, गा. कोविभा १७५५, १७५६। • यदि २३२/१ गाथा को नियुक्ति की माने तो उसमें 'होहिंति' क्रिया का प्रयोग करके पुनः २३३ में
नियुक्तिकार होही क्रिया का प्रयोग नहीं करते अतः स्पष्ट है कि २३२/१ भाष्य की गाथा है। १६. कहीं-कहीं गाथाओं के बारे में निर्णय करना अत्यन्त दुष्कर कार्य था। जैसे २३४/१, २-ये दोनों गाथाएं
टीकाओं में नियुक्तिगाथा के क्रम में प्रकाशित हैं। स्वो. में ये दोनों गाथाएं भाष्य और नियुक्ति दोनों क्रम में न होकर नीचे पादटिप्पण में दी हुई हैं। कोट्याचार्य कृत भाष्य की टीका में ये भाष्यगाथा के क्रम में
हैं। भाषा-शैली एवं विषयवस्तु के आधार पर ये भाष्यगाथाएं ही होनी चाहिए। १७. कहीं-कहीं नियुक्ति की गाथाएं भी भाष्य गाथाओं के क्रमांक में जुड़ गयी हैं। उनको हमने विषयवस्तु
के आधार पर नियुक्ति गाथा के क्रम में रखा है। गा. २३८, २३९ ये दोनों भाष्यगाथा के क्रम में हैं लेकिन ये गाथाएं विषयवस्तु की दृष्टि से २३७ वी गाथा के साथ जुड़ती हैं। कौन से तीर्थंकर के अंतर में कौन-कौन चक्रवर्ती हए. इसका उल्लेख गा. २३७ में है। यही वर्णन आगे २३८ एवं २३९ वीं
गाथा में है अत: ये दोनों गाथाएं नियुक्ति की होनी चाहिए। १८. चालू विषयक्रम एवं पौर्वापर्य के आधार पर भी प्रक्षिप्त गाथाओं का निर्धारण किया गया है। ऐसा प्रतीत
होता है कि तीर्थंकरों के बारे में विस्तृत जानकारी देने वाली गाथाएं भाष्य से नियुक्ति गाथाओं में जुड़ गई हैं। २३६/१-४० तक की ४० गाथाओं में बीच की दश गाथाओं के अलावा तीस गाथाएं तीनों टीकाओं वाले भाष्य में नहीं हैं। हमने २३६/१-४०-इन ४० गाथाओं को नियुक्ति गाथा के मूल क्रमांक में नहीं जोड़ा है क्योंकि २३६ वीं गाथा विषय-वस्तु की दृष्टि से २३७ वीं गाथा के साथ सीधी जुड़ती है। इसी प्रकार गा. ५८० के अंतिम चरण में 'पंच भवे तेसिमे हेतू' अर्थात् पंच परमेष्ठी को नमस्कार करने के ये पांच हेतु हैं। यह बात ५८१ वीं गाथा से जुड़ती है। ५८०/१ में आरोपण आदि का
वर्णन अतिरिक्त विस्तार सा लगता है। १९. आवश्यक नियुक्ति में अनेक गाथाएं पुनरावृत्त हुई हैं। वहां जिस क्रम में गाथा का जो क्रम उचित
१. स्वोविभा १७४०; जारिसगा लोगगरू, भरधे वासम्मि केवली तब्भे।
एरिसया कति अण्णे, ताता ! होहिन्ति तित्थकरा॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org