Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आवश्यक निर्युक्ति
३. कहीं-कहीं चूर्णि अथवा भाष्य में गाथाओं का कोई संकेत अथवा व्याख्या नहीं है। उन्हीं गाथाओं के बारे में टीकाकार हरिभद्र 'निर्युक्तिकारेणाभ्यधायि' तथा आचार्य मलयगिरि 'चाह निर्युक्तिकृद्' का उल्लेख करते है। इससे स्पष्ट है कि हरिभद्र तथा मलयगिरि के समय तक ये गाथाएं नियुक्ति गाथा के रूप में प्रसिद्ध हो गयी थीं । व्याख्यात्मक एवं उपसंहारात्मक लगने पर ऐसी गाथाओं को हमने नियुक्ति गाथा के मूल क्रमांक में नहीं जोड़ा है, जैसे-गा. ७५ / १ ।
४. जहां एक भी व्याख्या ग्रंथ में गाथा निर्युक्ति के रूप में स्वीकृत है, वह गाथा यदि हमें नियुक्ति की प्रतीत नहीं हुई तो उस गाथा को नियुक्ति गाथा के क्रम में तो रखा है लेकिन क्रमांक के साथ नहीं जोड़ा है, जैसे- ७ - ७५/२, ३, ५१२/१-४ । इसी प्रकार निह्नव से सम्बन्धित ४८७/१-२३ - इन २३ गाथाओं के लिए केवल आचार्य मलधारी हेमचन्द्र ने निर्युक्ति गाथा का संकेत किया है। ये गाथाएं स्पष्टतया भाष्य की प्रतीत होती हैं क्योंकि ४८२ - ८७ - इन छह गाथाओं में नियुक्तिकार ने गणधर संबंधी संक्षिप्त जानकारी दे दी है।
५. चूर्णि एवं भाष्य की व्याख्या के अलावा विषय की क्रमबद्धता के आधार पर भी प्रक्षिप्त या बाद में जोड़ी गयी गाथाओं का निर्धारण किया गया है । ११० / १,२ - ये दोनों गाथाएं पुनरुक्त एवं व्याख्यात्मक सी लगती हैं तथा ११० / ३ गाथा सूक्ति रूप है। इन तीनों गाथाओं को निर्युक्ति के क्रमांक में नहीं रखने से विषय की क्रमबद्धता ठीक बैठती है ।
६. अनेक स्थलों पर चूर्णि में पूरी गाथा प्रकाशित है पर उसकी व्याख्या नहीं है। ऐसी गाथाएं अधिकांशतया संपादक के द्वारा प्रकाशित चूर्णि में जोड़ दी गयी हैं। ये गाथाएं बाद के आचार्यों द्वारा व्याख्या रूप में प्राचीन कर्मग्रंथों से जोड़ दी गयी हैं । भाष्य में भी इनका निर्युक्ति गाथा के रूप में संकेत नहीं है, जैसे - १११ / १, २ ।
७. हस्तप्रतियों में निर्युक्तिगाथा के क्रम में मिलने वाली गाथाओं के लिए यदि किसी व्याख्याकार ने अन्यकर्तृकी का उल्लेख किया है और भाष्य में भी जिनका उल्लेख नहीं है, उन गाथाओं को प्राय: हमने निर्युक्तिगाथा के मूल क्रमांक में नहीं जोड़ा है। जैसे १११ / ३-५ - ये तीनों गाथाएं भाष्य में भी अनुपलब्ध हैं तथा मलयगिरि ने इनके लिए अन्यकर्तृकी गाथा का उल्लेख किया है।
८. कहीं-कहीं एक टीकाकार के समक्ष गाथाएं भाष्य गाथा के रूप में थीं लेकिन दूसरे व्याख्याकार ने उनको नियुक्ति के रूप में व्याख्यायित किया है। वहां हमने विषय की क्रमबद्धता एवं निर्युक्ति की भाषा के आधार पर गाथा का निर्णय किया है। जैसे १३५ / १२-१७ - इन सतरह गाथाओं के लिए मलयगिरि ने स्पष्ट रूप से भाष्य गाथा का उल्लेख किया है लेकिन दीपिका, हाटी एवं स्वोविभा में ये निर्युक्ति गाथा के क्रमांक में हैं। यहां ये गाथाएं १३५ वीं गाथा की व्याख्या रूप हैं। विषय की क्रमबद्धता दृष्टि से १३५ वीं गाथा १३६ वीं गाथा से संबद्ध लगती है अतः हमने इन्हें निर्युक्तिगाथा के मूल क्रमांक में नहीं जोड़ा है।
९. छंद के आधार पर भी प्रक्षिप्त एवं व्याख्यात्मक गाथाओं की पहचान की गयी है। जैसे १३७ वीं गाथा द्वारगाथा है और अनुष्टुप् छंद में रचित है। इसके बाद १६ गाथाएं व्याख्यात्मक हैं । १३८-१४१ – ये चार द्वारगाथाएं अनुष्टुप् छंद में हैं । १३७ वीं गाथा का सीधा संबंध १३८ वीं गाथा से जुड़ता है। ये पांचों
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