Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[प्रज्ञापनासूत्र]
[११ [१६७० प्र.] भगवान् ! जीव कितने स्थानों – कारणों से ज्ञानावरणीयकर्म बांधता है ?
[१६७० उ.] गौतम ? वह दो कारणों (स्थानों) से ज्ञानावरणीय-कर्मबन्ध करता है, यथा – राग से और द्वेष से। राग दो प्रकार का है, यथा - माया और लोभ । द्वेष भी दो प्रकार का कहा है, यथा – क्रोध और मान । इस प्रकार वीर्य से उपार्जित चार स्थानों (कारणों) से जीव ज्ञानावरणीय कर्म बांधता है।
१६७१. एवं णेरइए जाव वेमाणिए। [१६७१] नैरयिक (से लेकर) वैमानिक पर्यन्त इसी प्रकार (कहना चाहिए)। १६७२. जीवा णं भंते ! णाणावरणिजं कम्मं कतिहिं ठाणेहिं बंधंति ? गोयमा! दोहिं ठाणेहिं, एवं चेव। [१६७२ प्र.] भगवन् ! बहुत जीव कितने कारणों से ज्ञानावरणीय कर्म बांधते हैं ?
[१६७२ उ.] गौतम ! पूर्वोक्त दो कारणों से (बांधते हैं।) तथा उन दो के भी पूर्ववत् चार प्रकार समझने चाहिए।
१६७३. एवं णेरइया जाव वेमाणिया। [१६७३] इसी प्रकार बहुत से नैरयिकों (से लेकर) यावत् वैमानिकों तक समझना चाहिए ।
१६७४. [१] एवं दंसणावरणिज्जं जाव अंतराइयं। ___ [१६७४-१] इसी प्रकार दर्शनावरणीय (से लेकर) अन्तरायकर्म तक कर्मबन्ध के ये ही कारण समझने चाहिए।
[२] एवं एते एगत्त-पोहत्तिया सोलस दंडगा । [१६७४-२] इस प्रकार एकत्व (एकवचन) और बहुत्व (बहुवचन) की विवक्षा से ये सोलह दण्डक होते
विवेचन-कितने कारणों से कर्मबन्ध होता है? – द्वितीय द्वार में कर्मप्रकृतियों के बन्ध का क्रम तथा उनके बहिरंग कारण बताये गए हैं, जबकि इस तृतीय द्वार में कर्मबन्ध के अन्तरंग कारणों पर विचार किया गया है।
__राग-द्वेष एवं कषाय का स्वरूप-जो प्रीतिरूप हो, उसे राग और जो अप्रीतिरूप हो, उसे द्वेष कहते हैं। राग दो प्रकार का है-माया और लोभ । चूंकि ये दोनों प्रीतिरूप हैं, इसलिए राग में समाविष्ट हैं, जबकि क्रोध और मान ये दोनों अप्रीतिरूप हैं, इसलिये इनका समावेश द्वेष में हो जाता है। कोध तो अप्रीतिरूप है ही, मान भी दूसरे के गुणों के प्रति असहिष्णुतारूप होने से अप्रीतिरूप है।
१. पण्णवणासुत्तं भाग २ (२३वें पद पर विचार) पृ. १२५ २. प्रज्ञापना प्रमेयबोधिनी टीका, पृ. १६९