Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो १
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अध्ययन १: टिप्पण ३९-४० ३६. उनका पुनजन्म नहीं होता (पत्थि सत्तोववाइया)
प्राणी एक भव से दूसरे भव में नहीं जाते। यहां 'अरित' शब्द तिङन्तप्रतिरूपक निपात है। यह बहुवचन में प्रयुक्त है ।'
उपपात का अर्थ है- उत्पत्ति या जन्म । जो जन्म से निष्पन्न है वह औपपातिक कहा जाता है । यह वृत्तिकार का अभिमत है। प्रस्तुत प्रसंग में यह शब्द इसी अर्थ में प्रयुक्त है।
उपपात जन्म का एक प्रकार है । देव और नारक औपपातिक कहलाते हैं। उनका गर्भ आदि में से नहीं गुजरना पड़ता। वे तत्काल सम्पूर्ण शरीर वाले ही उत्पन्न होते हैं । यह अर्थ यहां गम्य नहीं है। 'आयारो' में भी सामान्य जन्म के अर्थ में इस शब्द का प्रयोग उपलब्ध है।
श्लोक ११-१२ ४०. श्लोक ११-१२:
अजितकेशकंबल के दार्शनिक विचारों का वर्णन प्रस्तुत सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंध (१११३-२२) में विस्तार से मिलता है। उसका कुछ अंश इस प्रकार है.........पर के हलवे से ऊपर, शिर के केशाग्र से नीचे और तिरछे चमड़ी तक जीव है-शरीर ही जीव है । यही पूर्ण आत्म-पर्याय है । यह जीता है (तब तक प्राणी) जीता है, यह मरता है (तब प्राणी) मर जाता है। शरीर रहता है (तब तक) जीव रहता है। उसके विनष्ट होने पर जीव नहीं रहता। शरीर पर्यन्त ही जीवन होता है। जब तक शरीर होता है तब तक जीवन होता है। [शरीर के विकृत हो जाने पर] दूसरे उसे जलाने के लिए ले जाते हैं। आग में जला देने पर उसकी हड्डियां कबूतर के रंग की हो जाती हैं । आसंदी (अरथी, चारपाई) को पांचवीं बना उसे उठाने वाले चारों पुरुष गांव में लौट आते हैं। इस प्रकार शरीर से भिन्न जीव का अस्तित्व नहीं है, शरीर से भिन्न उसका संवेदन नहीं होता।
जिनके मत में यह सु-आख्यात है-जीव अन्य है और शरीर अन्य है, वह इसलिए सु-आख्यात नहीं है कि वे इस प्रकार नहीं जानते कि आयुष्मान् ! यह आत्मा दीर्घ है या ह्रस्व, वलयाकार है या गोल, त्रिकोण है या चतुष्कोण, लम्बा है या षट्कोण । कृष्ण है या नील, लाल है या पीला या शुक्ल । सुगंधित है या दुर्गन्धित । तीता है या कडुआ, कषैला है या खट्टा या मधुर । कर्कश है या कोमल, भारी है या हल्का, शीत है या उष्ण, चिकना है या रूखा। (आत्मा का किसी भी रूप में ग्रहण नहीं होता।) इस प्रकार शरीर से भिन्न जीव का अस्तित्व नहीं है, शरीर से भिन्न उसका संवेदन नहीं होता।
जिनके मत में यह सु-आख्यात है-जीव अन्य है और शरीर अन्य है, वह इसलिए सु-आख्यात नहीं है कि उन्हें वह इस प्रकार उपलब्ध नहीं होता
जैसे कोई पुरुष म्यान से तलवार निकाल कर दिखलाए-आयुष्मान् ! यह तलवार है, यह म्यान । पर ऐसा कोई पुरुष नहीं है जो आत्मा को शरीर से निकाल कर दिखलाए, आयुष्मान् ! यह आत्मा है, यह शरीर है।
जैसे कोई पुरुष मूंज से शलाका को निकाल कर दिखलाए—आयुष्मान् ! यह मूंज है, यह शलाका। पर ऐसा कोई पुरुष नहीं है जो आत्मा को शरीर से निकाल कर दिखलाए, आयुष्मान् ! यह आत्मा है, यह शरीर है।
जैसे कोई पुरुष मांस से हड्डी को निकालकर दिखलाए-आयुष्मान् ! यह मांस है, यह हड्डी । पर ऐसा कोई पुरुष नहीं है जो आत्मा को शरीर से निकाल कर दिखलाए, आयुष्मान् ! यह आत्मा है, यह शरीर है।
जैसे कोई पुरुष हथेली में लेकर आंवले को दिखलाए-आयुष्मान् ! यह हथेली है, यह आंवला । पर ऐसा कोई पुरुष नहीं है जो आत्मा को शरीर से निकाल कर दिखलाए, आयुष्मान् ! यह आत्मा है, यह शरीर है।
१. वृत्ति पत्र २१ : अस्तिशब्दस्तिङन्तप्रतिरूपको निपातो बहुवचने द्रष्टव्यः । २. वृत्ति, पत्र २१ : उपपातेन निर्वृत्ताः औपपातिकाः। ३. आयारो, २२,४: अस्थि मे आया ओववाइए, णस्थि मे आया ओववाइए।
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