Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूपगडी १
२८
अध्ययन १ : टिप्पण ३६-३८
कठोपनिषद् में भी एक ही आत्मा के अनेक रूपों को अग्नि के उदाहरण द्वारा समझाया गया है, जैसे—अग्नि जगत् में प्रवेश कर अनेक रूपों में व्यक्त होता है, वैसे ही एक आत्मा सब भूतों की अन्तरात्मा में प्रविष्ट हो नाना रूपों में अभिव्यक्त हो रहा है।
प्रस्तुत सूत्र में एक के नानारूपों में अभिव्यक्त होने का प्रतिपादन है । उसका पूर्तपक्ष छान्दोग्य उपनिषद् का मृत्पिंड और उसके नानात्व का प्रतिपादन ही संगत प्रतीत होता है। प्रतिबिम्व या प्रतिरूपता का सिद्धान्त प्रस्तुत सूत्र में विवक्षित नही है और सूक्ष्मदृष्टि से विचार करने पर यह दृश्य जगत् के साथ उतना संगत भी नहीं है । नानात्व के सिद्धान्त की एक द्रव्य के नाना पर्यायों के साथ संगति हो सकती है, किन्तु प्रतिबिम्ब का सिद्धान्त संगत नहीं होता। इसका संबंध सादृश्य से है, पर्याय से नहीं है ।
tre यह रही है कि एक आत्मा या समष्टि चेतना वास्तविक नहीं है और न वह दृश्य जगत् का उपादान भी है । अनन्त आत्माएं हैं और प्रत्येक आत्मा इसलिए स्वतंत्र है कि उसका उपादान कोई दूसरा नहीं है। चेतना व्यक्तिगत है। प्रत्येक आत्मा का चैतन्य अपना-अपना है । इसका प्रतिपादन प्रस्तुत सूत्र के २/१/५१ में किया गया है ।
एकात्मवाद में किया की सार्थकता नहीं होती। इसीलिए एकात्मवादी ज्ञानवादी होते हैं, किपाबादी नहीं होते 'मन्द' शब्द से यही तथ्य सूचित होता है एकात्मवाद में न कोई हिस्य होता है और न कोई हिंसक इसलिए हिंसा करते हुए भी हिसा को नहीं मानते 'आरंभनित यही तथ्य सूचि होता है तो में भी 'मंद' और 'आरंभनिधित' ये दो पद हैं। इससे प्रतीत होता है कि सूत्रकार ने 'मंद' शब्द के द्वारा एकात्मवाद और अकारकवाद दोनों के अक्रियावादी होने की सूचना दी है । 'आरंभनिश्रित' शब्द के द्वारा इस सूचना का अनुमान भी किया जा सकता है कि इन दोनों को सृष्टि का आरंभ स्वीकृत है ।
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चूर्णिकार ने प्रस्तुत श्लोक में प्रयुक्त 'पुढवीयूभे' की व्युत्पति इस प्रकार की है - ' पृथिव्येव स्तूप : ' - पृथ्वी ही स्तूप है ।' वृत्तिकार ने इस व्युत्पत्ति के साथ-साथ पृथिव्या वा स्तूपः पृथ्वी का स्तूप, यह व्युत्पत्ति भी की है।'
श्लोक ११ :
२६. कसणे)
इसका अर्थ है- सर्व, अखंड | चूर्णिकार ने इसका अर्थ - शरीर मात्र' किया है और शरीर से व्यतिरिक्त कोई आत्मा नहीं होती, ऐसे पूर्वपक्ष का उल्लेख किया है ।"
३७. जो शरीर हैं वे ही आत्माएं हैं ( संति)
जो शरीर हैं, वे ही आत्माएं हैं। जब तक शरीर हैं तब तक ही आत्माएं हैं - यह इस शब्द का तात्पर्यार्थ है। (पेच्चा ण ते संति)
३८. वे आत्माएं परलोक में नहीं जातीं
ये आत्माएं परलोक में नहीं जातीं,
क्योंकि काया के आकार में परिवतों में चैतन्य पैदा होता है और उनके विघटन से चैतन्य नष्ट हो जाता है। एक भव से दूसरे भव में जाने वाला चैतन्य प्राप्त ही नहीं होता, इसलिए परलोक में जाने वाला, शरीर से मिन, स्वकर्मफल को भोगने वाला 'आत्मा' नाम का कोई पदार्थ नहीं है।"
१. कठोपनिषद् ५२
२. पूर्णि, पृ० २५ ।
३. वृत्ति, पत्र १६ ॥
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अग्निको भुवनं प्रविष्ट रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव। एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा, रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ।
४. वृत्ति, पत्र २० : कृत्स्नाः सर्वेऽप्यात्मानः ।
५. चूणि, पृ० २६ : कसिणो णाम शरीरमात्रः, न तु शरीराद् व्यतिरिच्यते ।
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६. वृत्ति, पत्र २० : सन्ति विद्यन्ते यावच्छरीरं विद्यन्ते तदभावे तु न विद्यन्ते ।
७. वृत्तपत्र २०वाकारपरिणतेषु भूतेषु चेत्यादिनां भवति भूतादविघटनेच चैतन्यलभ्यते, इत्येतदेव दर्शयति - 'पिन्वा न ते संती' ति प्रेत्य परलोके न ते आत्मानः सन्ति विद्यन्ते परलोकानुयायी शरीराद् मिन्नः स्वकर्मफलभोक्ता न कश्चिदात्माखयः पदार्थोऽस्तीति भावः ।
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