Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो १
२६
२६. आत्मा (देहो ) का विनाश हो जाता है (विजासो होइ देहिणो )
प्राणी का विनाश हो जाता है अर्थात् उसे मृत कह दिया जाता है। इस घटना में केवल किसी एक भूत का विनाश होता है । उसके विनष्ट होते ही प्राणी मर जाता है। इसमें भूतों से व्यतिरिक्त किसी जीव या आत्मा का अपगम नहीं होता। यह भूतवादियों का पूर्वपक्ष है। शरीर पांच भूतों से निर्मित है किसी एक भूत की कमी होने पर पृथ्वी भूत पृथ्वी में अप् भूत बप् में, बापु भूत वायु में तेजस् भूत तेजस में और आकाश भूत आकाश में मिल जाता है। जूमिकार ने प्रस्तुत प्रसंग में विशेषावश्यक भाष्य की पांच गाथाएं तथा उनकी स्वोपज्ञवृत्ति का उद्धरण प्रस्तुत कर भूतवादियों के मत का निराकरण किया है।
श्लोक ७-८ :
३०. श्लोक ७-८
आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार नहीं करने वाले दार्शनिक भूतवादी कहलाते हैं। प्रस्तुत सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंध में उन्हें 'पंचमहामति' कहा गया है। वही वावृति जैसे किसी भी शब्द का प्रयोग प्राप्त नहीं है। वर्तमान में पावक या बृहस्पति के सिद्धान्त-सूत्र मिलते है उनमें चार भूतों पृथिवी, अ, तेज और वायु का ही उल्लेख मिलता है। इनमें आकार परिगणित नहीं है । केवल प्रत्यक्ष प्रमाण को मानने वाले चार्वाक अमूर्त आकाश को मान भी कैसे सकते हैं ? दर्शनयुगीन साहित्य में चार्वाक सम्मत चार भूतों का ही उल्लेख मिलता है । आगम युग में पंवभूतवादी थे । पकुधकात्यायन पंचभूतों को स्वीकार करते थे और आत्मा को नहीं मानते थे ।
भूतों से चैतन्य उत्पन्न होता है और भूरों का विनाश होने पर चैतन्य विनष्ट हो जाता है। यह अनात्मवादियों का सामान्य सिद्धान्त है । इसकी प्रतिध्वनि दर्शतयुग के साहित्य में भी मिलती है ।"
शरीर से भिन्न आत्मा का अस्तित्व नहीं है, इसलिए परलोक, पुनर्जन्म और मोक्ष का प्रश्न ही नहीं उठता । भूतवादी सिद्धान्त के अनुसार मृत्यु ही मोक्ष है। वे धर्माचरण को भी महत्त्व नहीं देते । उनका प्रतिपाद्य है कि धर्म का आचरण नहीं करना चाहिए । इसकी पुष्टि में उनका तर्क है कि उसका फल परलोक में होता है । जब परलोक ही संदिग्ध है तब उसका फल असंदिग्ध कैसे होगा ? कौन समझदार पुरुष हाथ में आए हुए मूल्यवान् पदार्थ को दूसरे को सौंपना चाहेगा ? कल मिलने वाले मयूर की अपेक्षा आज मिलने वाला कबूतर अच्छा है। संदिग्ध सोने के सिक्के की अपेक्षा निश्चित चांदी का सिक्का अच्छा है । "
श्लोक
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अध्ययन १ : टिप्पण २६-३१
३१. विल (ड) (विष्णू)
चूर्णिकार ने 'विष्णु' ( विज्ञ) का वैकल्पिक अर्थ विष्णु भी किया है।" वृत्तिकार ने इसका अर्थ केवल 'विद्वान्' किया है ।" इति भूताव्यतिरिक्तन्यवादपूर्वपक्ष इति ।
१. वृत्ति पत्र १६ ततश्च मृत इति देशः प्रवर्तते
२. चूर्णि, पृष्ठ २४ : विणासो नाम पञ्चस्वेव गमनम् पृथिवो पृथिवीमेव गच्छति, एवं शेषाण्यपि गच्छन्ति । ३. चूर्णि, पृष्ठ २४ में उद्धृत विशेषावश्यक भाष्य गाथा १६५१ – ५५ तथा स्वोपज्ञ टीका ।
४. सूयगडो, २।१।२३ : अहावरे दोच्चे पुरिसजाए पंचमहम्भूइए त्ति आहिज्जइ ।
५. तत्त्वोपपृथिव्यतेजोवायुरिति तस्वानि ।
तत्समुदाये शरीरेन्द्रिय विषयसंज्ञा ॥
६. देखें - गडो १।१।१५, १६ का टिप्पण |
७. (क) षड्दर्शनसमुच्चय, तर्क रहस्यदीपिका, पृष्ठ ४५८ : यदुवाच वाचस्पति:(ख) सम्मति तर्क, वृत्ति पत्र परलोकनोऽभावात् परलोकाभावः ।
८. कामसूत्र
" इति लोकायतिका:
६. चूणि, पृष्ठ २५ विष्णुरिति विद्वान् विष्णुर्वा । १०. वृत्ति, पत्र १६ ।
न धर्मांश्चरेत् । एष्यत्फलत्वात् । सांशयिकत्वाच्च । कोह्यवालियो हस्तगतं परतं कुर्शत् । वरनयकपोतः श्वो मयूरात् । वरं सान् निष्कासांशयिकः कार्याः ॥
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