Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूपगडो १
२४
अध्ययन १ टिप्पण २०-२४
कान्ने नैतिकता के तीन आधारभूत तत्त्व माने हैं । वे ये हैं - ( १ ) संकल्प की स्वतंत्रता ( २ ) आत्मा की अमरता (३) ईश्वर ।
श्लोक ६ :
२०. श्रमण-ब्राह्मण ( समणमाहणा )
चूर्णिकार और वृत्तिकार ने श्रमण शब्द से शाक्य आदि श्रमणों का तथा माहन शब्द से परिव्राजक आदि का ग्रहण किया है । चूर्णिकार ने वैकल्पिक रूप में श्रमण का अर्थ साधु और माहन का अर्थ श्रमणोपासक किया है । अथवा तत्पुरुष समास कर श्रमण को भी माहन माना है । "
२१. ग्रंथों (परिग्रह और परिग्रह-हेतुओं) (गंबे)
ग्रंथ का शाब्दिक अर्थ है बांधने वाला। उसके अनेक प्रकार हैं-सजीव या निर्जीव पदार्थ, धन या पारिवारिक जन, आरंभ और परिवह
२२. नहीं जानते हुए ( अयाणंता )
इसका अर्थ है - विरति और अविरति के दोषों को नहीं जानने वाला । *
वृतिकार ने इसका अर्थ परमार्थ को नहीं जानने वाला किया है।"
प्रस्तुत अध्ययन के ६८वें श्लोक के आधार पर इसका अर्थ जगत् और आत्मा के स्वरूप को नहीं जानने वाला तथा ६६वें श्लोक के आधार पर दुःख और दुःख के हेतुओं को नहीं जानने वाला, फलित होता है ।
२३. गर्व करते हैं (विउस्सिता )
चूर्णिकार और वृत्तिकार इसके अर्थ में एक मत नहीं हैं। चूर्णिकार के अनुसार इसका अर्थ है - विविध प्रकार से बद्ध तथा बीभत्स रूप में अहंमन्यता रखने वाला ।'
वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है- अनेक प्रकार से दृढ़ता से बद्ध अर्थात् अपने मत में अभिनिविष्ट ।"
श्लोक ७:
२४. कुछ दार्शनिकों (नूतवादियों के मत में (एस)
इस शब्द से पांच महाभूतवादियों का ग्रहण किया गया है ।" वृत्तिकार ने इस शब्द से बार्हस्पत्यमतानुसारी ( लोकायतिक ) भूतवादियों का ग्रहण किया है ।
वृत्तिकार ने एक प्रश्न उठाया है कि सांख्य, वैशेषिक आदि भी पांच महाभूतों का सद्भाव मानते हैं फिर प्रस्तुत श्लोक में प्रतिपादित पांच महाभूतों के कथन को लोकायतिक मत की अपेक्षा में ही क्यों मानना चाहिए ? इस प्रश्न का समाधान वे
१. (क) चूर्ण, पृष्ठ २३ : श्रवणाः शाक्यादयः, माहणा परिव्राजकादयः ।
(ख) वृत्ति, पत्र १४ : श्रमणाः शाक्यादयो बार्हस्पत्यमतानुसारिणश्व ब्राह्मणाः ।
२. चूर्ण, पृष्ठ २३ : समजा लिंगत्या माहना समणोवासना तलुवो वा समासः श्रमणा एव माहणा श्रमणमाहणाः ।
२. चूर्ण, पृष्ठ २३ ॥
४. चूर्णि पृष्ठ २३. अथाणंता विरति अविरति दोसे य ।
५. वृत्ति पत्र १४ : परमार्थमजानाना ।
६. चूर्ण, पृ २३ : बिओलिता, बद्धा इत्यर्थः, बीभत्सं वा उत्सृता विउस्सिता ।
उत्
७. वृत्तपत्र १४ विविधम् अनेकप्रकारम् बद्धाः स्ववयमिनिविष्टाः।
८. चूर्ण, पृष्ठ २३ : एस ण सम्बति, जे पंचभूतवाइयात एवं ।
६. वृत्ति, पत्र १५ : एकेषां भूतवादिनाम् आख्यातानि प्रतिपादितानि तत्तोर्यकृता तैर्वा भूतवादित्रिर्वार्हस्पत्य मतानुसारिभिः ।
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