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सूत्रकृतांग सूत्र
कितने ही लोग संसार में फंसते रहे हैं । यह वाद कहता है कि, " जो मनुष्य विचार करने पर भी हिंसा नहीं करता तथा जो अनजान में हिंसा करता है, उसे कर्म का स्पर्श होता तो है वश्य; पर उसे पूरा पाप नहीं लगता । पाप लगने के स्थान तीन हैं- स्वयं विचारपूर्वक करने से, दूसरों से कराने से, दूसरों के कार्य का अनुमोदन करने से । परन्तु यदि हृदय पापमुक्त हो तो इन तीनों के करने पर भी निर्वाण अवश्य मिले " [ २४-२७]
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टिप्पणी- क्रिया और उस के फल को माननेवाले को क्रियावादी कहा जाय तो जैन खुद भी क्रियावादी हैं । पर क्रियावादियों में, बौद्धादिक- जो मानसिक हेतु पर ही जोर देते हैं और अनजान की क्रिया के परिणाम को महत्त्व नहीं देते की भी गणना होने से यहां विरोध किया | विशेष चर्चा के लिये के लिये द्वितीय खण्ड के को देखिये |
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गया है द्वितीय अध्ययन
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और इस वाद में एक दृष्टान्त दिया है कि, कोई गृहस्थ पिता काल में भूख से पीडित होकर पुत्रमांस खाता हो और कोई भिक्षु उस में से भिक्षा लेकर खावे तो उसे कर्म का लेप ( बन्धन ) न लगे ।" [ २८ ]
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मैं कहता हूं कि यह वाद अज्ञान | मन से जो दोष करता है, उसे निर्दोष नहीं माना जा सकता क्योंकि वह संयम में शिथिल है । परन्तु भोगासक्त लोग उक्त बातें मान कर पाप में पड़े रहते हैं । यह सब मिथ्या वाढ़ी कैसे हैं ? फूटी नाव में बैठकर कोई जन्मान्ध समुद्र पार जाना चाहे ऐसी उनकी दशा है और होती है । ऐसे अनार्य श्रमण संसार में चक्कर साया करते हैं । [ २६-३२ ]