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पुंडरीक
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अहिंसक और अपरिग्रही
वह जानता है कि जगत् में साधारणतया गृहस्थ और अनेक श्रमण ब्राह्मण हिंसापरिग्रहादि से युक्त होते हैं। वे तीनों प्रकार से प्राणियों की हिंसा और कामभोग सम्बन्धी जड़-चेतन पदार्थों के परिग्रह से निवृत्त नहीं होते; परन्तु मुझे तो होना है । मेरा सन्यासी जीवन यद्यपि उन हिंसा परिग्रहादि से युक्त गृहस्थों श्रादि के आधार पर बीतता है पर वे पहिले भी हिंसा श्रादि से रहित नहीं थे, ध्रुव भी वैसे ही हैं। ऐसा सोचकर वह भिक्षु शरीर-रक्षा के योग्य ही उनका आधार लेकर अपने मार्ग में प्रयत्नशील रहता है ।
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भिक्षुजीवन में श्राहारशुद्धि ही मुख्य होती है, इसलिये वह इस विषय में बहुत सावधानी रखता है। गृहस्थों के अपने लिये ही तैयार किये हुए भोजन में से बढ़ा-घटा मांग लाकर अपना निर्वाह करता । वह जानता है कि 'गृहस्थों के यहां अपने लिये अथवा अपने 'कुटुम्बियों के लिये भोजन तैयार करने की अथवा संग्रह कर रखने की प्रवृत्ति होती है । ऐसा दूसरे ने अपने लिये तैयार किया 'हुआ और उसमें से बड़ा हुया, देने वाले, लेने वाजे और ग्रहण करने -तीनों के दोषों से रहित, पवित्र, प्रासु (निर्जीव), हिंसा से अनेक रहित, भिक्षा मांग कर लाया हुआ, साधु जान कर दिया हुआ, स्थानों से थोड़ा थोड़ा गौचरी किया हुआ भोजन ही उस को ग्राह्य होता है। उस भोजन को वह भूख के प्रयोजन से, दीपक को तेल और फोड़े पर लेप की श्रावश्यकता के समान भावना रख कर संयम की रक्षा के लिये ही सांप के बिल में घुसने के समान (मुंह में स्वाद लिये बिना ) खाता है । खाने के समय खाता है पीने के समय पीता है, तथा दूसरी पहिनने सोने की सब क्रियाएं वह भिक्षु योग्य समय पर करता है ।